________________
२३६ : जैन तत्त्वकलिका - द्वितीय कलिका
इसके बिना समस्त व्रत नियम, तपश्चर्या आदि का आचरण मोक्ष का - कर्मक्षय का कारण नहीं, अपितु भवभ्रमण का ही कारण है । अतः सम्यक्त्वरूपी रत्न को प्राप्त करके, उसे चल-मल अगाढ़ आदि दोषों एवं शंका, कांक्षा आदि अतिचारों से बचाकर सुरक्षित रखना अत्यावश्यक है । साथ ही सम्यक्त्व के स्वरूप, कारण, महिमा, दूषण, भूषण, आदि पर पुनः पुनः विचार करना भी बोधिबीज भावना है । सम्यग्दृष्टि आत्माओं का सत्संग करना भी इसके लिए आवश्यक है ।
(१२) धर्मस्वाख्याततत्त्वांनुप्रेक्षा - धर्म - मार्ग से च्युत न होने और उसके आचरण में स्थिरता एवं सुदृढ़ता लाने के लिए धर्म - शुद्ध धर्मतत्त्व का चिन्तन करना आवश्यक है । ऐसा चिन्तन करना कि यह मेरा सौभाग्य है कि समस्त प्राणियों के लिए कल्याणकर एवं सर्वगुणसम्पन्न धर्म मुझे मिला है, जिसका वीतरागी महापुरुषों ने उपदेश दिया है । मनुष्य भव तभी सार्थक हो सकता है, जबकि सम्यग्दर्शन -ज्ञान - चारित्ररूप धर्म का सम्यक् आचरण किया जाए। यही धर्मानुप्रेक्षा है ।
इन बारह अनुप्रेक्षाओं के अनुप्रेक्षकों के दृष्टान्त क्रमश: (१) 'अनित्य ' के भरत चक्री, (२) 'अशरण' के अनाथी मुनि, (३) 'संसार' के भगवती मल्लि, (४) 'एकत्व' के मृगापुत्र, (५) 'अन्यत्व' के नमि राजर्षि, (६). 'अशुचित्व' के सनत्कुमार चक्रवर्ती, (७) 'आस्रव' के समुद्रपाल, (८) 'संवर' के हरकेशीमुनि, (E) 'निर्जरा' के अजुन अनगार (१०) 'लोकानुप्रेक्षा' के शिवराज- ऋषि, (११) 'बोधिदुर्लभ' के भगवान ऋषभदेव के ६८ पुत्र और (१२) 'धर्मानुप्रेक्षा' के अनुप्रेक्षक धर्मरुचि - अनगार हुए हैं ।
इन बारह भावनाओं में से किसी भी एक भावना या सभी का अनुचिन्तन सम्यक् प्रकार से करना भी 'करण' सत्य है । '
बारह भिक्षु प्रतिमाओं की साधना
बारह भिक्षु प्रतिमाओं का सम्यक् श्रद्धा - प्ररूपणापूर्वक यथाशक्ति आचरण करना 'करणसत्य' के अन्तर्गत है । बारह भिक्षुप्रतिमाएँ साधु - जीवन में निराहार, अल्पाहार, स्वावलम्वन एवं स्वाश्रयत्व सिद्ध करने तथा आत्मशक्ति बढ़ाकर कर्मक्षय हेतु पुरुषार्थ करने की प्रतिज्ञाएँ हैं ।
- ओघनियुक्तिभाष्य
१ 'भावणा पडिमा य'।'
२ देखिये, बारह भिक्षुप्रतिमा के लिए दशाश्रु तस्कन्ध