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साधु का सर्वांगीण स्वरूप : २३५
के कारणभूत आस्रव को रोकने के एकमात्र उपाय संवर है, उसकी अनुप्रेक्षा करना, बार-बार चिन्तन-मनन करना संवरानुप्रेक्षा है।
(8) निर्जरानप्रेक्षा-कर्मों का आंशिक रूप से क्षय होना निर्जरा है। निर्जरा का प्रधान कारण तप (द्वादशविध तपश्चरण) है।' समिति-गुप्ति, श्रमणधर्म, परीषह और उपसर्गों को समभाव से सहना, कषाय-विजय, इन्द्रियनिग्रह आदि से भी निर्जरा होती है। इस प्रकार निर्जरा के स्वरूप, कारण आदि का चिन्तन करना निर्जरा भावना है। ___वस्तुतः दुःखों, कष्टों, विपत्तियों, परीषहों या उपसर्गों को समभावपूर्वक, धैर्य से, ज्ञानपूर्वक सहन करने से निर्जरा होती है। अज्ञानपूर्वक, निरुद्द श्य, निरर्थक, अधर्य से रो-रोकर कष्ट सहने से भी उदय में आये हुए पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा तो होती है, किन्तु वह अकाम निर्जरा है, उससे कर्मक्षय के अनुपात में नये कर्मों का बन्धन और अधिक एवं दढ़ हो जाता है । किन्तु ज्ञानपूर्वक, सोद्देश्य, समभावपूर्वक कष्ट-सहन, परीषहों और उपसर्गों पर विजय से सकाम निर्जरा होती है, वही यहाँ उपादेय है।
पूर्वोक्त (सकाम) निर्जरानुप्रेक्षा के लिए विविध कर्म विपाकों का (अशुभ कर्मोदय के समय) चिन्तन करना और अकस्मात्-पूर्वबद्ध कर्मोदयशवात् प्राप्त कटुविपाकों (दुःखों) के समय समाधानवृत्ति साधना, समभावपूर्वक सहना, तथा जहाँ सम्भव हो, वहाँ स्वैच्छिक तप-त्याग द्वारा संचित कर्मों को भोगना आवश्यक है।
(१०) लोकानुप्रेक्षा–तत्त्वज्ञान की विशुद्धि तथा समभाव में स्थिरता के लिए लोक (षद्रव्यात्मक लोक) के वास्तविक स्वरूप का चिन्तन करना, अथबा लोक के संस्थान, जड़ और चेतन दोनों के स्वरूप और परस्पर सम्बन्धों-असम्बन्धों का विचार करना भी लोक-अनुप्रेक्षा या लोक संस्थान भावना है।
(११) बोधिदाभत्वानप्रेक्षा-प्राप्त हए मोक्षमार्ग में अप्रमत्तभाव की साधना के लिए ऐसा विचार करना कि अनादिकाल से जन्म-मरण के विविध दुःखों के प्रवाह में, मोहनीय आदि कर्मों के तीव्र आघातों को सहते हुए जीव को शुद्ध बोधि (दृष्टि) और शुद्ध चारित्र मिलना अत्यन्त दुर्लभ है। यही मोक्ष प्राप्त करने-समस्त दुःखों से मुक्त होने का प्रधान साधन है।
१ तपसा निर्जरा च।
-तत्त्वार्थ० अ० ६ सू० ३