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________________ २३४ : जैन तत्त्वकलिका-द्वितीय कलिका (५) अन्यत्वानुप्रेक्षा-मनुष्य अज्ञान एवं मोह के वश शरीर और शरीर से सम्बन्धित पर-पदार्थों की ह्रास-वद्धि को अपनी ह्रास-वृद्धि मानने की भूल करके मूल कार्य को भूल जाता है। इस स्थिति का निराकरण करने हेतु शरीर और शरीर-सम्बद्ध पर-पदार्थों से अपने आपको भिन्न मानना और शरीरादि जड़ पदार्थों के गुणधर्मों से अपने गुणधर्मों की भिन्नता का चिन्तन करना कि शरीर जड़, स्थूल तथा विनाशी (आदि-अन्तयुक्त) है, जबकि में चेतन, सूक्ष्म, अविनाशी आदि हूँ; यह अन्यत्वानुप्रेक्षा है। (६) अशुचित्वानुप्रेक्षा-संसार में सबसे अधिक घणास्पद यह शरीर है, किन्तु अज्ञानी मनुष्य अपने गोरे, हष्ट-पुष्ट शरीर अथवा स्त्रियों के बाहर से सुन्दर दिखने वाले शरीर तथा उसके रूप रंग, अंग-सौष्ठव आदि को देखकर उसमें आसक्त-मूच्छित हो जाता है। अतः उस पर आसक्ति-मूर्छा हटाने के लिए सोचना कि बाहर से सुन्दर बलिष्ठ दिखाई देने वाला यह शरीर मल-मूत्र आदि अशुचि का भण्डार है, अशुचि से ही यह पैदा हुआ है और अशुचि वस्तुओं से ही इसका पोषण हुआ है। यह स्वयं अशुचि है और अशुचि-परम्परा का कारण है। इसके प्रति मेरा मोह या ममत्व व्यर्थ है, कर्मबन्ध का कारण है। ऐसा चिन्तन अशुचित्वानुप्रेक्षा है। (७) आस्रवानुप्रेक्षा–यह जीव आस्रवों (कर्मों के आगमन) के कारण ही अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण कर रहा है। परन्तु कर्मों का आगमन (आस्रव) किन-किन कारणों से होता है, उनके कटु फल कैसे-कैसे मिलते हैं, तथा आस्रव के द्वारों (स्रोतों) को बन्द किये बिना धर्म का पूर्ण फल प्राप्त नहीं होता, इस प्रकार का गहन चिन्तन करना आस्रवानुप्रेक्षा है। आस्रव के २० भेदों में अव्रत (अविरति) प्रधान है। अर्थात्-विषय भोगों की तथा सांसारिक पदार्थों के उपभोग-परिभोग की आशा-तष्णा का निरोध न करना ही अव्रत है; इत्यादि विचार करना भी आस्रवानुप्रेक्षा है। (८) संवर-अनुप्रेक्षा-आस्रवों का निरोध करना संवर है । मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग आस्रव के हेतु हैं। आस्रव के कारणों के परित्याग का विचार करके तप, समिति, गुप्ति, चारित्र, परीषहजय, धर्मपालन आदि का आचरण करने से संवर होता है। अतः संसार परिभ्रमण १ आस्रवनिरोधः संवरः । स गुप्ति-समिति-धर्मानुप्रेक्षा-परीषहजय चारित्रः। -तत्त्वार्थ सूत्र अ० ६ सू० १, २
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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