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साधु का सर्वांगीण स्वरूप : २३३
निरोध) हो जाता है। यह कार्य बहुत ही रुचि, उत्साह, श्रद्धा और वैराग्य भाव के साथ होना चाहिए।
बारह भावनाएँ इस प्रकार हैं
(१) अनित्यानुप्रेक्षा-किसी प्राप्त वस्तु के वियोग का दुःख न हो, इसलिए उन सभी वस्तुओं के प्रति आसक्ति कम करने के लिए अनित्यता का चिन्तन करना कि शरीर, घर-बार आदि पदार्थ और उनके सम्बन्ध नित्य और स्थिर नहीं हैं।
(२) अशरणानुप्रेक्षा-एकमात्र शुद्ध धर्म को ही जीवन का शरणभूत स्वीकार करने के लिए अन्य सभी सांसारिक वस्तुओं के प्रति ममत्व हटाना आवश्यक है। इसके लिए ऐसा चिन्तन करना कि जैसे सिंह के पंजे में पड़े हुए हिरण का कोई शरण नहीं है, वैसे ही आधि-व्याधि-उपाधि से ग्रस्त शरीर और शरीर से सम्बन्धित परिवार, धन, मकान आदि कोई भी पदार्थ शरणभूत नहीं है।
(३) संसारानप्रेक्षा-संसार-तष्णा को छोड़ने के लिए सांसारिक वस्तु अथवा जन्म-मरणरूप संसार से निर्वेद (औदासीन्य या वैराग्य) की भावनासाधना आवश्यक है । अतः ऐसा चिन्तन करना कि इस जन्म-मरणरूप संसार में न तो कोई स्वजन है, न परजन, क्योंकि प्रत्येक के साथ जन्म-जन्मान्तर में अनेक प्रकार के सम्बन्ध हुए हैं । सांसारिक प्राणी राग-द्वष-मोह से संतप्त होकर एक-दूसरे को हड़पने में लगे हुए हैं, ऐसे असह्य दुःखरूप अथवा हर्षविषाद, सुखदुःखादि द्वन्द्वों के स्थान -- संसार से जितनी जल्दी छुटकारा हो, अच्छा है।
(४) एकत्वानुप्रेक्षा-मोक्ष-प्राप्ति की दृष्टि से राग-द्वष के अवसरों पर निर्लेपता एवं समत्व रखना अत्यावश्यक है। अतः स्वजन-विषयक राग और परजन विषयक द्वष को दूर करने हेतु ऐसा चिन्तन करना कि मैं अकेला हो आया हूँ, अकेला ही जाऊँगा, मैं अकेला ही जन्मता-मरता हूँ, अकेला ही अपने बोये हुए कर्मबीजों के सुख-दुःखादि फलों को भोगता हैं। वास्तव में मेरे सुखदुःख का कर्ता-हर्ता मैं ही हूँ, अन्य कोई नहीं। यह एकत्वानुप्रेक्षा है।
१ अनित्याशरण-संसारकत्वान्यत्त्वाशुचित्वाऽश्रव-संवर-निर्जरा-लोक-बोधिदुर्लभ-धर्म
स्वाख्यातस्वतत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः । -तत्त्वार्थसूत्र अ० ६ सूत्र ७