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२३२ : जैन तत्त्वकलिका - द्वितीय कलिका
गी, हिंसा भी होगी और गन्दगी से रोग फैलेगा, होगी । यही इस पंचम समिति का आशय है । दशविध समाचारीरूप क्रियाएँ
जनता को घृणा पैदा
उत्तराध्ययन सूत्र में साध ु के चारित्र - पालन में सहायक दस प्रकार की समाचारी का विधान है। यह दस प्रकार की समाचारी में साध ु जीवन की उस सम्यक् व्यवस्था का निरूपण है, जिसमें साधक के पारस्परिक व्यवहारों और कर्तव्यों का संकेत है । इस समाचारी के पालन से साध जीवन में है समता ( सामायिक) दृढ़ और पुष्ट होती है ।
दस प्रकार की समाचारी इस प्रकार है
(१) आवश्यकी (साध को स्थान से बाहर कार्यवश जाना पड़े तो गुरुजनों को सूचना देकर जाना), (२) नषेधिकी (कार्यपूर्ति के बाद वापिस लौटने पर आगमन की सूचना देना), (३) आपृच्छना ( अपने कार्य के लिए गुरुजनों से अनुमति लेना ), (४) प्रतिपृच्छना (दूसरों के कार्य के लिए गुरु से अनुमति लेना), (५) छन्दना (पूर्वगृहीत द्रव्यों के लिए गुरु आदि को आमन्त्रित (मनुहार) करना), (६) इच्छाकार ( दूसरों का कार्य अपनी सहज अभिरुचि से करना और अपना कार्य करने के लिए दूसरों को उनकी इच्छानुकूल विनम्र निवेदन करना); (७) मिथ्याकार, ( दोष की निवृत्ति के लिए 'मिच्छामि दुक्कडं' कहकर आत्म-निन्दा करना ), ( ८ ) तथाकार (गुरुजनों के उपदेश को 'सत्यवचन है', कहकर स्वीकार करना), (६) अभ्युत्थान ( गुरुजनों की पूजा -सत्कार के लिए अपने आसन से उठकर खड़ा होना, स्वागत के लिए सामने जाना) और (१०) : उपसम्पदा ( किसी विशिष्ट प्रयोजन में दूसरे आचार्य के सान्निध्य में रहना) । '
इन समाचारी रूप क्रियाओं को सम्यक् प्रकार से करना भी 'करण' का अंग है ।
बारह भावनाओं की अनुप्रेक्षा
करणसप्तति में १२ भावनाएँ भी हैं, जो रत्नत्रय के आचरण को स्थिर एवं पुष्ट करती हैं । इन बारह भावनाओं का प्रत्येक साध - साध्वी को प्रतिदिन अनुप्रेक्षण - ( अपने ध्येय के अनुकूल अन्तर्निरीक्षण ) गहन चिन्तन करना चाहिए । ऐसे चिन्तन से राग-द्व ेष की वृत्तियाँ रुक जाती हैं, संवर (आस्रव
१ उत्तराध्ययन अ० २६ समाचारी अध्ययन