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साधु का सर्वांगीण स्वरूप : २३१
समिति है ।' इस दृष्टि से जो आहार-पानी सदोष है-पूर्वोक्त ४७ दोषों से किसी भी दोष से युक्त है, उसे साध को कदापि ग्रहण न करना चाहिए।
(४) आदान भाण्डमात्र निक्षेपणा समिति-साधओं के पास संयमपालन के लिए धर्म-साधन के रूप में जो उपकरण होते हैं, उन्हें यतनापूर्वक उठाना और रखना आदाननिक्षपणसमिति है। जब कोई भी कार्य यतना से रहित होकर किया जाएगा तब उसमें जीव-हिंसा होना सम्भव है। इसके अतिरिक्त असावधानी से किसी चीज को उठाने-रखने की आदत से प्रमाद बढ़ेगा, जो कि संयमी जीवन के लिए अनर्थकर होगा। .
___ (५) उच्चार-प्रस्रवण-खेल-जल्ल-तिघाण-परिष्ठापनिका-समितिउच्चार (मल), प्रस्रवण (मूत्र-पेशाब), थूक, कफ, शरीर का मैल, पसीना, लीट (नाक का मैल) आदि पदार्थों को डालना (परिष्ठापन-विसर्जन करना) हो तब बड़ी सावधानी रखनी चाहिए, क्योंकि असावधानीपूर्वक जैसे-तैसे और जहाँ-तहाँ इन चीजों को फेंकने से अयतना होगी, जीवों को पीड़ा पहँ
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आहार के ४७ दोष इस प्रकार हैं(१) सोलह उद्गम दोष
आहाकम्मुद्देसियं पूईकम्मे य मीसजाए य । 'ठवणा पाहुडियाए पाओअर कीय पामिच्चे ॥१॥ परियट्टिए अभिहडे उन्भिन्ने मालोहडे इय ।
अच्छिज्जे अणिसिट्टे अज्झोयरए य सोलसमे ।।२।। (२) सोलह उत्पाद दोष
धाई दूई निमित्त आजीवैवणीमग तिगिच्छाय । कोहे माणे माया लोभे य, हवंति दस एए ।।३।। पुविपच्छासंथव विज्जामंते, चुण्णजोगे य ।
उप्पायणाइ दोसा सोलसम्मे मूलकम्मे य ॥४॥ (३) एषणा के दस दोष
संकिय-मक्खिय-निक्खित्तपिहिय साहरियदायगुम्मीसे ।
अपरिणय-लित्त-छड्डिय एसणादोसा दस हवंति ।।५।। (४) ग्रासषणा के पाँच दोष(१) संयोजना, (२) अप्रमाण, (३) अंगार, (४) धूम और (५) अकारण
दोष । इन सबका अर्थ एवं विवेचन पिछले पृष्ठों में हो चुका है।