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२२८ : जैन तत्त्वकलिका-द्वितीय कलिका वयावृत्य करूँ, तप करूं या औषध आदि गवेषणा करके लाऊँ ?' इस सम्बन्ध में गुरु (दीक्षाज्येष्ठ मुनि) की जैसी आज्ञा हो, तदनुसार करे। तत्पश्चात् एक प्रहर तक स्वाध्याय करे अथवा योग्य श्रोताओं का समूह श्रवणार्थ एकत्रित हो तो धर्मकथा (व्याख्यान) करे। उसके पश्चात् समय हो तो ध्यान या शास्त्र के अर्थ का चिन्तन करे। - इसके बाद आहार करने का कारण उपस्थित होने पर भिक्षाचरी
करना, देखने पर करना), (२४) शृंग (ललाट के दांये या बाँए हाथ लगाकर) (२५) कर (अरिहंत प्रभु का 'कर' समझकर), (२६) मोचन (वन्दना के . बिना मुक्ति न होगी, इस दृष्टि से विवशता से वन्दना करना ।) (२७) आश्लिष्ट-नाश्लिष्ट (अपने मस्तक और गुरुचरण दोनों में से किसी एक को छना, दूसरे को न छूना) (२८) ऊन (आवश्यक वचन-नमनादि क्रियाओं में से कोई क्रिया छोड़ देना ।) (२६) उनरचुहा (वन्दना के पश्चात् जोर से 'मत्थएण वंदामि' बोलना) (३०) मूक (पाठ का उच्चारण न करना; (३१) ढड्डर (उच्च स्वर से अभद्र रूप से वन्दन सूत्र का उच्चारण करना, (३२) चूडली (अर्धदग्ध काष्ठवत् रजोहरण को सिरे से पकड़ कर वन्दना करना)।
वन्दना के इन बत्तीस दोषों को वजित कर सम्यक् रूप से. वन्दना क्रिया करनी चाहिये।
-प्रवचनसारोद्धार (वन्दना द्वार) में उक्त
१ (क) आहार करने के ६ कारण-(१) वेदना (क्षुधा वेदना की शान्ति के लिए)
(२) वयावृत्य (सेवा करने के लिए), (३) ईर्यापथ (गमनागमन आदि की शुद्ध प्रवृत्ति के लिए), (४) संयम (संयम-रक्षा या संयम-पालन के लिए) (५) प्राणप्रत्यार्थ (प्राणों की रक्षा के लिए) और (६) धर्मचिन्ता (शास्त्र पठन-पाठन आदि धर्मचिन्तन के लिए।
(ख) आहार त्यागने के ६ कारण-(१) आतंक (भयंकर रोग से ग्रस्त होने पर) (२) उपसर्ग (आकस्मिक उपसर्ग आने पर), (३) ब्रह्मचर्यगुप्ति (ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए), (४) प्राणिदया (जीवों की दया के लिए) (५) तप (तपस्या करने के लिए) और (६) संलेखना (अन्तिम समय में अनशनपूर्वक संथारा करने हेतु)।.
-उत्तराध्ययन २६॥३२-३५