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२२६ : जैन तत्त्वकलिका-द्वितीय कलिका
प्रतिक्रमण करे। फिर सूर्योदय होने पर विधिपूर्वक अप्रमाद भाव से प्रतिलेखना करे, अर्थात्-वस्त्र-पात्रादि समस्त धर्मोपकरणों का 'प्रतिलेखन-प्रत्यवेक्षण करे।
१ (क) प्रतिलेखना को विधि-(१) उड्ढं-उकडू आसन से बैठकर वस्त्र को
भूमि से ऊँचा रखकर प्रतिलेखन करना, (२) थिर-वस्त्र को दृढ़ता से स्थिर रखना, (३) अतुरियं--उपयोगयुक्त होकर जल्दी न करते हुए प्रतिलेखन करना, (४) पडिलेहे-वस्त्र के तीन भाग करके उसे दोनों ओर से अच्छी तरह देखना, (५) पप्फोडे--देखने के बाद यतना से धीरे-धीरे झड़काना; (६) पज्जिज्जा-झड़काने के बाद वस्त्रादि पर लगे हुए जीव को यतना से प्रमार्जन कर हाथ में लेना और एकान्त में परिष्ठापन करना।
-उत्तराध्ययन अ० २६ (ख) अप्रमादयुक्तप्रतिलेखना के छह प्रकार-(१) अनतित ---(शरीर एवं वस्त्रादि को प्रतिलेखन करते हुए नचाना नहीं), (२) अवलित-(प्रतिलेखन कर्ता को शरीर और वस्त्र को बिना मोड़े, सीधा, चंचलता रहित बैठना), (३) अननुबन्धी -(वस्त्र को अयतना से न झड़कना), (४) अमोसली (धान्यादि कूटते समय ऊपर, नीचे या तिरछे मूसल लगता है, उसी तरह प्रतिलेखन करते समय दीवार आदि से वस्त्र नहीं लगाना), (५) षट्पुरिमनवस्फोटका (प्रतिलेखना में ६ पुरिमा-वस्त्र के दोनों हिस्सों को तीन-तीन बार खंखेरना तथा नौ खोडवस्त्र को तीन-तीन बार पूजकर उसका ३ बार शोधन करना चाहिए), (६) पाणिप्राणविशोधन-वस्त्रादि पर जीव रष्टिगोचर हो तो यतनापूर्वक हाथ से उसका शोधन करना। .
. - स्थानांग सूत्र (ग) प्रमादयुक्त प्रतिलेखना के ६ प्रकार-(१) आरभटा (एक वस्त्र का प्रतिलेखन पूर्ण किये बिना ही दूसरे वस्त्र का अथवा जल्दी-जल्दी प्रतिलेखन पारम्भ करना), (२) सम्मर्दा (जिस प्रतिलेखना में वस्त्र के कोने मुड़े ही रहें, सलवट न निकाली जाये); (३) मोसली (प्रतिलेखन करते समय ऊपर नीचे या तिरछे दीवार आदि से वस्त्र को लगाना) (४) प्रस्फोटना (प्रतिलेखना के समय वस्त्र को जोर से झड़काना), (५) विक्षिप्ता (प्रतिलेखन किये हुये वस्त्रों को प्रतिलेखन न किये हुए वस्त्रों में मिला देना या इधर-उधर वस्त्रों को फेंककर प्रतिलेखन करना); (६) वेदिका (प्रतिलेखन करते समय घुटनों के ऊपर नीचे या पास में हाथ रखना)। (घ) करणसप्तति में २५ प्रकार की प्रतिलेखना बताई गई है, उसे भी यहां समझ लेना चाहिये।