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२२२ : जैन तत्त्वकलिका — द्वितीय कलिका
सकती है ।' साधुत्व की प्रतीति गुणों से ही होती है । गुणों के धारण करने से ही साधुजन षट्का (विश्व के प्राणिमात्र) के प्रतिपालक, रक्षक, शरणरूप तथा उद्धारक हो सकते हैं । गुण ही जगत् में पूजनीय होते हैं, लिंग (वेष ) या ar आदि नहीं । इसीलिए तीर्थंकर भगवन्तों ने साधु के सत्ताईस गुण बतलाए हैं, जो उसमें होने आवश्यक हैं
(१-५) पच्चीस भावनाओं सहित पंचमहाव्रत पालन - ( १ ) सर्वप्राणातिपात विरमण, (२) सर्वमृषावादविरमण, (३) सर्व- अदत्तादानविरमण, (४) सर्वमैथुनविरमण और ( ५ ) सर्वपरिग्रहविरमण, इन पांचों महाव्रतों का, प्रत्येक महाव्रत की पांच-पांच भावनाओं सहित तीन करण तीन योग से पालन करना । ३
१ (क) नाणदंसणसंपन्नं, संजमे य तवे रयं । एवं गुण समाउत्तं संजय साहुमालवे ।। (ख) एवं तु गुणप्पेही, अगुणाणं च विवज्जओ । सो मरणं व आराहेइ संवरं ।।
(ग) गुणेहि साहू अगुणेहिऽसाहू | २ (क) सत्तावीसं अणगारगुणा पण्णत्ता, तं जहा पाणाइवायाओ वेरमगं, मुसावायाओ वेरमणं, अदिन्नादाणाओ वेरमणं, मेहुणाओ वेरमण, परिग्गहाओ वेरमणं, सोइंदियनिग्गहे, चक्खिदियनिग्गहे, वाणिदियनिग्गहे, जिभिदिय निग्गहे, फासिंदियनिग्गहे, कोहविवेगे, माणविवेगे, मायाविवेगे, लोभविवेगे; भावसच्चे, करणसच्चे, जोगसच्चे खमा विरागया मणसमाहरणया वयसमाहरणया कायसमाहरणया, णाणंसंपण्णया, दंसणसंपण्णया, चरित्तसंपण्णया वेयण अहियासणया मारणंतिय अहियासणया । - समवायांग, समवाय २७वाँ (ख) पंचमहव्वयजुत्ता पंचेंदियसंवरणो, चउव्विहकसाय मुक्को तओ समाधारणीया ॥ १ ॥ तिसच्चसंपन्न तिअ े खंति संवेगरओ, वेयणमच्चुभयगयं साहुगुण सत्तवीसं ||२|| ३ (क) आचार्य वर्णन प्रकरण में पच्चीस भावनाओं सहित पांच महाव्रतों का विवेचन किया जा चुका है ।
- दशवं ० अ० ७ गा० ४६
- दशवै० ५।२।४४ दशवे० अ० ६, उ०३, गा०११
(ख) पुरिम - पच्छिमगाणं तित्थगराणं पंचजामस्स पणवीसं भावणाओ पण्णत्ताओ तं जहा - ईरियासमिई मणगुत्ती वयगुत्ती आलोयभायणभोयणं आदाणभंडमंतनिक्खेवणास मई || ५ || अणुवीतिभासणाया कोहविवेगे लोभविवेगे भयविवेगे हासविवेगे ||५|| उग्गहअणुण्णावणया उग्गहसीमजाणणया सयंमेव उग्गहं