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साधु का सर्वांगीण स्वरूप : २२३
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह महाव्रतों का ग्रहण साधु के लिए यावज्जीवन के लिए होता है; और वह होता है—मन, वचन
और काया के योग से । अर्थात्-हिंसा आदि का भाव न मन में रखना होता है, न वचन में और न शरीर में । इतना ही नहीं, यह हिंसा आदि पापकर्म वह न स्वयं करता है, न दूसरों से करवाता है और न उनका अनुमोदन ही करता है।
(६-१०) पंचेन्द्रियनिग्रह-(१) श्रोत्रेन्द्रियनिग्रह (२) चक्ष रिन्द्रियनिग्रह (३) घ्राणेन्द्रियनिग्रह, (४) रसनेन्द्रियनिग्रह और (५) स्पर्शेन्द्रियनिग्रह ।' इन पांचों इन्द्रियों को संसाराभिमुख न होने देना, विषयों की ओर प्रवृत्त न होने देना।
(११-१४) चतुर्विध कषाय विवेक-(१) क्रोधविवेक, (२) मानविवेक, (३) मायाविवेक और (४) लोभ विवेक ।२ ।
(१५) भावसत्य--अन्तःकरण से आस्रवों को हटाकर भावों को निर्मल करके धर्मध्यान और शुक्लध्यान के माध्यम से आत्मा का शुद्ध भावों से अनुप्रेक्षण करना, ताकि आत्मा परमात्मा बन सके। अतः भावों में सत्य की स्फुरणा उत्पन्न होना ही भावसत्य है ।
(१६) करणसत्य--भावसत्य की सिद्धि के लिए करणसत्य को अत्यन्त आवश्यकता है, क्योंकि जब क्रियाएँ (दैनिक धार्मिक क्रियाएँ) सत्य होंगी, तभी भावसत्य शुद्धरूप से टिक सकता है।
'करण' शब्द यहाँ पारिभाषिक है। 'करणसप्तति' ३ में 'करण' के ७० प्रकारों का समावेश किया गया है। उन 'करण' के ७० प्रकारों का सम्यक्
अणुगिण्हणया, अणुगविय परिभुजणया, साहारण भंतपाणं अणु ण्णविय पडिभुजणया ॥५॥ इत्थीपसुपंडगसंसत्तग सय गास गवज्जया इत्थीकहा विवज्जणया, इत्थीणं इंदियाणमालोयणवज्जणया, पुव्वरयपुव्वकीलियाणं अणणुसरणया पणीताहारविवज्जणया ।।५।। सोइंदियरागोवरई चक्खिदियरागोवरई घाणिदियरागोवरई जिभिदियरागोवरई फासिदियरागोवरई ॥५।।
__ --आवश्यक सूत्र ६ पंचेन्द्रियनिग्रह का वर्णन आचार्य स्वरूप वर्णन' में विस्तार से किया गया है-सं २ चार कषायों पर विजय का वर्णन भी 'आचार्य स्वरूप वर्णन' के प्रसंग में विस्तार से किया गया है।
-संपादक ३ 'कारण सप्तति का निरूपण 'उपाध्याय स्वरूप वर्णन' में किया गया है।