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साधु का सर्वांगीण स्वरूप : २२१
श्यक होता है । दीक्षार्थो प्रायः चतुर्विध संघ की उपस्थिति में तीर्थंकर भगवान् की साक्षी से, गुरु के समक्ष इस प्रकार की प्रतिज्ञा ग्रहण करता है।
'करेमि भंते ! सामाइयं, सव्वं सावज्ज जोगं पच्चक्खामि, जावज्जीवाए, तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए काएणं, न करेमि न कारवेमि, करतं पि अन्नं ण समणजाणामि; तस्स भते ! पडिक्कमामि निदामि गरिहापि अप्पाणं वोसिरामि ।'
_ 'भगवन् ! मैं सामायिक करता हूँ, अर्थात् समस्त सावद्य (पापयुक्त) योग (मन-वचन-काया के व्यापार) का प्रत्याख्यान-त्याग करता है। यावज्जीवन तीन करण तीन योग से, अर्थात्-मन से, वचन से और काया से (पाप व्यापार) न करूंगा, न करवाऊंगा और न करते हुए अन्य व्यक्ति को अच्छा समझ गा (अनुमोदन नहीं करूंगा)। भूतकाल में जो भी पाप व्यवहार मुझसे हुआ हो, उसका प्रतिक्रमण करता (उससे पीछे हटता) हूँ, उसकी निन्दा (पश्चात्ताप) करता हूँ, उसकी गर्दा (गुरु-साक्षी से) करता हूँ; तथा उस मेरी (दूषित) आत्मा का त्याग करता हूँ; अर्थात् उन मलिन वृत्तियों से आत्मा को मुक्त करता हूँ।"१
यह प्रतिज्ञा जितनी भव्य है, उतनी कठिन भी है। समस्त पापव्यापारों का त्याग करना सरल नहीं है। किन्तु संवेग और वैराग्य के रंग में रंगा हुआ आत्मा काया और वाणी से तो दूर रहा, मन से भी पापकर्म करने का विचार तक नहीं करता । वह बलवान् आत्मा इतनी कठोर प्रतिज्ञा ग्रहण भी करता है और उसका निर्वाह भी।
___ इसके पश्चात् साधुधर्मक्रियाओं के पालन में अभ्यस्त एवं प्रशिक्षित होने पर उपस्थापना (बड़ी) दीक्षा के समय पाँच महाव्रतों एवं छठे रात्रिभोजन विरमणव्रत का आरोपण किया (ग्रहण कराया) जाता है।
साधु के सत्ताईस गुण साधुधर्म की पूर्वोक्त योग्यताओं और विशेषताओं को देखते हए यह निःसन्देह कहा जा सकता है कि वेष, जाति, वय और शरीर आदि मात्र से कोई भी व्यक्ति साधु नहीं कहला सकता, साधु की पहचान गुणों से ही हो
१ आवश्यकसूत्र-प्रतिज्ञासूत्र । २ दशर्वकालिक सूत्र, अध्ययन ४