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________________ साधु का सर्वांगीण स्वरूप : २१६ वैसे ही जिनकी पूर्ण आत्मशुद्धि में किञ्चिन्मात्र त्रुटि रह जाती है, वे साधु निग्रन्थ कहलाते हैं । निग्रन्थ-निग्रन्थ भी दो प्रकार के होते हैं-उपशान्त कषाय और क्षीण कषाय। ऐसे मुनि मोहनीय कर्म से पूर्णतः निवत्त और सर्वथा ग्रन्थ रहित होते हैं। (५) स्नातकनिर्ग्रन्थ-जैसे धान्य के समस्त कंकर चुन-चुनकर निकाल दिये जाएँ और उस धान्य को जल से धोकर स्वच्छ कर लिया जाए, उसी प्रकार जो मुनि पूर्ण विशुद्ध तथा सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी होते हैं-वे स्नातक निग्रन्थ कहलाते हैं। इनके भी दो प्रकार हैं-सयोगीकेवली और अयोगीकेवली। इस प्रकार पाँचों कोटि के निग्रन्थों में यद्यपि संयम के गुणों में न्यूनाधिकता होती है, तथापि उनमें न्यूनाधिक रूप से संयम के गुण रहते हैं। इसलिए पाँचों को निग्रन्थ मानकर समान रूप से आदर-सत्कार, वन्दन, नमस्कार, उपासना-आराधना करनी चाहिए। . साधु धर्म के योग्य-अयोग्य कौन ? समदर्शी आचार्य हरिभद्र सूरि ने साध धर्म के योग्य-अधिकारी के विषय में विशद चर्चा करते हुए बताया है कि जो आर्य देश में उत्पन्न हो, विशिष्ट अनिन्द्य जाति-कुलसम्पन्न हो, हत्या, चोरी आदि महापाप करने वाला न हो, संसार की असारता समझ चुका हो, वैराग्यवान् हो, शान्त प्रकृति वाला हो, झगड़ालु न हो, प्रामाणिक हो, नम्र हो, राज्यविरोधी न हो, राष्ट्र और समाज के विशाल हित में बाधक न हो, शरीर से अपंग न हो, त्याग धर्म के प्रति दृढ़ श्रद्धावान् हो, प्रतिज्ञा पालन में अटल हो और आत्म-कल्याण की इच्छा से दीक्षा लेकर गुरुचरणों में समर्पित होने के लिए तैयार हो चुका हो, वह साधु है।' साधु धर्म की उत्कृष्ट योग्यता का यह मानदण्ड है। यदि उससे चौथाई भाग के गुण कम हों तो मध्यम योग्यता और आधे भाग के गुण कम हों तो जघन्य योग्यता समझनी चाहिए। इसमें अन्तिम दो गण तो अवश्य होने चाहिए। इससे कम गुण वाला दीक्षा का अधिकारी नहीं होता। प्रवचनसारोद्धार में निम्नलिखित अठारह प्रकार के व्यक्तियों को साधधर्म की दीक्षा के लिए अयोग्य माना गया है जो आठ वर्ष से कम आयु वाला हो, अत्यन्त वृद्ध हो, नपुंसक हो, क्लीव हो, व्याधिग्रस्त हो, चोर हो, १ धर्मबिन्दु अ० ४
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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