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प्रज्ञापुरुष आचार्यश्री आत्माराम जी महाराज | १९
जन्म-पंजाब प्रान्त जिला जालन्धर के अन्तर्गत 'राहों' नगरी में क्षत्रियकुल मुकुट-चोपड़ा वंशज सेठ मनसाराम जी की धर्मपत्नी परमेश्वरी देवी की कुक्षि से वि० सं० १६३६ भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष, द्वादशी तिथि, शुभ मुहूर्त में एक होनहार पुण्यआत्मा का जन्म हुआ। नवजात शिशु का माता-पिता ने जन्मोत्सव मनाया। अन्य किसी दिन नवजात कुलदीपक का नाम आत्माराम रखा गया। शरीर सम्पदा से जनता को ऐसा प्रतीत होता था, मानों, जैसे कि देवलोक से च्यव कर कोई देव आये हैं । तप्त कञ्चन जैसा कान्तिमान शरीर था। - दैवयोग से शैशवकाल में ही क्रमशः माता-पिता का साया सिर से उठ गया। कुछ वर्षों तक आपकी दादी ने आपका भरण-पोषण किया, तत्पश्चात् वृद्धावस्था होने से उसका भी निधन हो गया । कुछ समय बाद बालक आत्माराम जी के पूर्व पुण्यों ने चमत्कार दिखाया। लुधियाना में विराजित आचार्यश्री मोतीराम जी महाराज के सानिध्य में आप पहुँच गये । आचार्यश्री के दर्शन करते ही उनके मन में भावना उठी'मैं भी इनके जैसा बनूं।' यही स्थान मेरे लिए सर्वथोचित है। अब अन्यत्र कहीं जाने की आवश्यकता ही नहीं रही, यही मार्ग मेरे लिए श्रेयस्कर है।" बालक की अन्तरात्मा की भूख एकदम भेड़क उठी, पूज्य आचार्यश्री मोतीराम जी महाराज से बातचीत की और अपने हृदय के भाव मुनिसत्तम के समक्ष रखे । मणि-कञ्चन का संयोग हो गया।
पूज्य श्री जी ने होनहार बालक के शुभ लक्षण देखकर अपने साथ रखने की स्वीकृति प्रदान की। कुछ ही महीनों में कुशाग्रबुद्धि होने से बहुत कुछ सीख लिया । इससे आचार्य मोतीराम जी म० को बहुत सन्तुष्टि हुई । प्रत्येक दृष्टि से परखकर दीक्षा के लिए शुभ मुहूर्त निश्चित किया । अपनी प्रखर प्रतिभा तथा मेधा से बालक आत्माराम ने गुरु के हृदय को प्रभावित कर दिया । गुरु को बीज में अंकुर और अंकुर में एक विशाल वृक्ष प्रतिभासित हो रहा था।
दीक्षा-पटियाला शहर से २४ मील उत्तर दिशा की ओर छतबन्ड' नगर में मुनिवर पहुँधे । वहाँ वि० सं० १९५१ आषाढ़ शुक्ल पंचमी को श्री संघ ने बड़े समारोह से दीक्षा का कार्यक्रम सम्पन्न किया । दीक्षागुरु श्रद्धेय श्री शालीग्राम जी महाराज बने और विद्यागुरु आचार्य श्री मोतीराम जी महाराज ही रहे । दीक्षा-के समय नव- दीक्षित श्री आत्मारामजी की आयु कुछ महीने कम बारह वर्ष की थी, किन्तु बुद्धि विशाल थी । प्रतिभाधर व्यक्तित्व लघु वय में ही तेजस्वी होता है और महान कार्य करने की उसमें अगणित संभावनाएं तथा अद्भुत शक्ति होती है, जिससे वह समग्र समाज को चमत्कृत कर देता है।
ज्येष्ठ-श्रेष्ठ शिष्यरत्न रावलपिण्डी के ओसवाल वंशी वैराग्य त्याग एवं सौन्दर्य की साक्षात् मूर्ति श्री खजानचन्द जी म० की वि० सं० १९६० फाल्गुन शुक्ल तृतीया के दिन गुजरावाला नगर में श्री सँघ ने बड़े उत्साह और हर्ष से दीक्षा का कार्यक्रम सम्पन्न किया।