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साधु का सर्वांगीण स्वरूप : २१७
बन्धन के कारणों से जो पहले से ही निवृत्त है; तथा जो दान्त, मोक्षगमनयोग्य, काया की आसक्ति से रहित है, उसे 'श्रमण' कहना चाहिए।'
भिक्ष-जो गुण श्रमण के कहे हैं, वे सब भिक्ष में होने चाहिए। साथ ही भिक्ष कहलाने योग्य वही है--जो अभिमानी नहीं है, विनीत है, नम्र है, इन्द्रियों और मन पर नियन्त्रण रखता है, मोक्ष प्राप्त करने के योग्य है, काया के प्रति ममत्व का उत्सर्ग किये हए है, नाना प्रकार के उपसर्गों और परीषहों को जीतता (सहता) है, अध्यात्मयोग से शुद्ध चारित्र वाला है, संयम मार्ग में उद्यत (उपस्थित) है, स्थितात्मा (स्थितप्रज्ञ) है, ज्ञान से सम्पन्न है, दूसरों (गृहस्थों) के द्वारा दिये गये आहारादि का सेवन करता है, उसे 'भिक्ष' कहना चाहिए।
निम्रन्थ-निग्रन्थ में भिक्ष के गुण तो होने ही चाहिए। साथ ही निग्रन्थ के अन्य गुण भी होना आवश्यक है। जैसे कि-जो राग-द्वोष रहित होकर रहता है, आत्मा के एकत्व को जानता है, वस्तु के यथार्थस्वरूप का परिज्ञाता है, अथवा प्रबुद्ध - जागृत है, जिसने आस्रवद्वारों के स्रोत बन्द कर दिये हैं, जो सुसंयत है, (बिना प्रयोजन अपनी शरीर सम्बन्धी क्रिया नहीं करता), पाँच समितियों से युक्त है, शत्र-मित्र पर समभाव रखता है, जो आत्मा के सच्चे स्वरूप (आत्मवाद) का वेत्ता है, जो समस्त पदार्थों के स्वरूप का ज्ञाता . है, जिसने संसार के स्रोत (शुभाशुभकर्मों के आस्रवों को छिन्न कर डाला है, जो पूजा-सत्कार और लाभ की आकांक्षा नहीं करता, जो धर्मार्थी है, धर्मज्ञ है, नियाग (मोक्षमार्ग) को स्वीकार किए हुए (प्रतिपन्न) है, समता से युक्त अथवा सम्यकतया समितियों से युक्त होकर मोक्ष पथ में विचरण करने वाला (संयम यात्री) है, दान्त है, मोक्ष-योग्य है, कायोत्सर्ग
१ एत्थ वि समणे अणिस्सिए अणियाणे आदाणं च अतिवायं च मुसावायं च
बहिद्धं च कोहं च माणं च मायं च लोहं च पिज्जं च दोसं च; इच्चेव जओ आदाणं अप्पणो पट्ठोसहेऊ तओ तओ आयाणाओ पुव्वं पडिविरए पाणाइवाया सिआ दंते दविए वोसट्टकाए समणेत्ति वच्चे।
-सूत्रकृतांग, श्रुतस्कन्ध १, अ० १६, सूत्र ३ २ एत्थ वि भिक्खु अणुन्नए, विणीए नामए दंते दविए वोसट्ठकाए संविधुणीय
विरूवरूवे परीसहोवसग्गे अज्झप्पजोगसुद्धादाणे उवट्ठिए ठिअप्पा संखाए परदत्त भोई भिक्खूत्ति बच्चे।
-सूत्रकृतांग श्रु तस्कन्ध १, अ-१६, सूत्र ४