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साधु का सर्वांगीण स्वरूप : २१५
आदश साध क्षमामूर्ति होता है। उसके शान्त हृदय में क्रोध को सूक्ष्म रेखा भी कभी नहीं उभरती । क्षमा के शान्ति-मन्त्र से वह जगत् के कलह, क्लेश और क्षोभ के रोग को शान्त कर देता है। सुन्दर अप्सरा हो अथवा कुरूप कुब्जा, दोनों ही जिसको दष्टि में केवल काष्ठ की पूतली-सम हैं। कंचन और कामिनी का ऐसा सच्चा त्यागी साध लोभ और मोह के विषाक्त वाणों से विद्ध नहीं होता । वह अपने अन्तर्जीवन की विपुल अध्यात्म समृद्धि के अक्षय कोष का एकमात्र स्वतन्त्र अधिकारी व स्वामी होता है। इसलिए वह चक्रवर्तियों का भी चक्रवर्ती और सम्राटों का भी सम्राट होता है ।
___ वह पाप के फल से नहीं, पापवृत्ति से ही दूर रहता है तथा सदैव शुद्ध और शुभ भावों में रमण करता है । वह दुनिया के प्रशंसात्मक या निन्दात्मक, अथवा मोहक या उत्त जक शब्दों की अपेक्षा अन्तरात्मा की आवाज को बहुमान देकर चलता है। वह अपने सरल, निश्छल, निष्पाप एवं श्रद्धा-प्रज्ञा से समन्वित जीवन से मानव समाज को श्रमण संस्कृति का मर्म समझाता है ।
सांसारिक वासनाओं को त्यागकर जो पाँच इन्द्रियों को अपने वश में रखते हैं; ब्रह्मचर्य की नौ बाड़ों की रक्षा करते हैं, क्रोध, मान, माया, लोभ पर यथाशक्य विजय प्राप्त करते हैं; अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहरूप पांच महाव्रतों का पालन करते हैं; पांच समिति और तीन गुप्तियों की सम्यक् रूप रो आराधना करते हैं; ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपआचार और वीर्याचार, इन पाँच आचारों के पालन में अहर्निश संलग्न रहते हैं; जैन परिभाषानुसार वे साधु कहलाते हैं।'
साधु के पर्यायवाची शब्द और लक्षण जैनशास्त्रों में साधु के लिए अनेक शब्द प्रयुक्त हैं। जैसे—साधु, संयत, ' विरत, अनगार, ऋषि, मुनि, यति, निग्रन्थ, भिक्ष , श्रमण आदि। ये सभी पर्यायवाची शब्द हैं।
श्री सूत्रकृतांगसूत्र के प्रथम श्रु तस्कन्ध में साधु के चार गुणसम्पन्न नामों का प्रतिपादन इस प्रकार किया गया है
१ पचिंदिय संवरणो तह. नवविह बंभचेरगुत्तिधरो ।
चउविहकसायमुक्को, इअ अट्ठारसगुणेहिं संजुत्तो । पंचमहव्वयजुत्तो, पंचविहायारपालणसमत्थो । पंचसमिओ तिगुत्तो, इइ छत्तीस गुणेहिं गुरुमज्झ ।