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२१४ : जैन तत्वकलिका-द्वितीय कलिका
वस्तुतः साधु वही कहलाता है जो परभाव का निवारक और स्वभाव (आत्मस्वभाव) का साधक है, परद्रव्य में इष्टानिष्ट भाव को रोक कर जो आत्मतत्त्व में रमण करता है। जिसे न जीवन का मोह है और न मरण का भय; न इस लोक में आसक्ति है, न परलोक में । वह मुख्यतया शुद्धोपयोग में रहता है और गौणरूप से शुभोपयोग में परन्तु अशुभोपयोग में वह कदापि उतरकर नहीं आता। उसकी जीवन-सरिता सतत आत्मस्वरूप में बहती है । विकार मुक्ति अथवा कर्ममुक्ति ही उसकी जीवन यात्रा का एकमात्र और अन्तिम लक्ष्य है। आत्मदर्शन एवं आत्मानुभव ही उसके जीवन का नित्य रटन होता है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय की आराधना ही उसकी सच्ची साधना है।
साध की साधना सामायिक-समत्वयोग से प्रारम्भ होती है, अतः उसकी समत्वसाधना का अन्तिम ध्येय-सिद्धत्व है। आत्मशान्ति और आत्मसिद्धि की शोध में सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप रत्नत्रय का उज्ज्वल प्रकाश लेकर आत्मा से परमात्मा बनने के पथ पर अग्रसर होता है, वही आदर्श साधु है। ... आदर्श साधु दुनिया की ऋद्धि को त्यागकर आत्मसिद्धि का अमर साधक बनता है। वह परमतत्त्व की खोज में ज्ञान और क्रिया का अवलम्बन लेकर अपनी आत्मा की पूर्णशक्ति से सतत गतिमान रहता है । वह संसार के क्षेत्र में धर्म के पवित्र संस्कारों का वातावरण बनाकर रत्नत्रय की साधना के शिखर पर तीव्रगति से बढ़ता जाता है। उसके जीवन के कण-कण में अहिंसा की सुगन्ध महकती है और सत्य का आलोक चमकता है । उसकी अहिसात्मक अमतदष्टि जंगल में भी मंगल कर देती है, विष को भी अमत में बदल देती है, शत्रु को भी मित्र बना देती है। वह जगत् के विष को शान्तिपूर्वक पीकर बदले में परम प्रसन्न मुद्रा से अमृत की वृष्टि करता है। - जो इतना क्षमाधारी है कि पत्थर फेंकने वाले पर भी सुवचनपुष्पवर्षा करता है; गाली देने वाले के प्रति भी आशीर्वचन-मंगल उद्गार निकालता है । अपकारी के प्रति भी उपकार करके अपनी दिव्यता की उपलब्धि के दर्शन कराता है। उसके स्नेह की शीतल धारा द्वष के धधकते दावानल को भी बुझा देती है। उसके प्रेम का जादू पापी के कठोरतम हृदय को भी पसीजने का अवसर देता है । वह पापी को नहीं, उसकी पापमय मनोदशा को अनुचित मानता है और आत्मीयता के अमत वचन जल से उसके पाप का प्रक्षालन कर देता है।