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साधु का सर्वांगीण स्वरूप
पंच परमेष्ठी में पाँचवाँ और गुरुपद में तृतीय स्थान 'साधु' का है । साध का पद बड़े ही महत्त्व का है । साधु सर्वविरति साधना पथ का प्रथम यात्री है | साधुपद मूल है । आचार्य, उपाध्याय और अरिहन्त तीनों पद इसी साधुपद के विकसित रूप हैं । अर्थात् - साधु ही उपाध्याय, आचार्य और अरिहन्त तक पहुँचता है; विकास करता है और अन्त में सिद्ध बन जाता है । साधुत्व के अभाव में उक्त तीनों पदों की भूमिका पर कथमपि नहीं पहुँचा जा सकता । अतः साधुपद ही श्रमण संघ और श्रमणधर्म का आधार एवं नींव का पत्थर है ।
साधु का अर्थ और लक्षण
साधु शब्द का मूलतः अर्थ है - साधक | साधना करने वाला साधक
होता है ।
प्रश्न होता है-किस बात की साधना ? इसके कई प्रकार के उत्तर हैं(१) जो आत्मार्थ की साधना करता है, वह साधु है ।
(२) जो स्वपरहित की साधना करता है, वह साधु है ।
(३) जो सम्यग्दर्शन -ज्ञान - चारित्ररूप मोक्षमार्ग की साधना करता है। अथवा मोक्ष की साधना में निरन्तर प्रयत्नशील रहता है, वह साधु है ।
(४) जो व्यक्ति आत्मा की विशुद्धि के लिए उसी की ओर ध्यान एकाग्र करके, एकमात्र मोक्ष के लिए ही आत्म-साधना करता है, उसे साधु कहते हैं । '
इसके अतिरिक्त एक अर्थ और है— जिसका चरित्र 'साधू' यानी सुन्दर हो, वह साधु है ।
१ (क) आत्मार्थं साधयतीति साधुः (ख) स्वपरहितं साधयतीति साधुः ।
(ग) साध्नोति मोक्षमार्गमिति साधुः । (घ) साधयन्ति ज्ञानादिशक्तिभिर्मोक्षमिति
साधवः ।