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________________ २१२ : जैन तत्त्वकलिका-द्वितीय कलिका इस प्रकार उपाध्यायजी अनेक गुणों से युक्त होकर विराजमान होते हैं। उपाध्याय की विशेषता उपाध्यायजी वीतराग प्रभु और उनके वीतराग विज्ञान के प्रति भक्तिमान्, अचपल (शान्त), कौतुकरहित (गम्भीर), निश्छल, निष्प्रपंच, मैत्रीभावना रखने वाले होते हैं। वे ज्ञान के भण्डार होते हुए भी निरभिमान, परदोषदर्शन-रहित, शत्रु निन्दा से दूर, क्लेशहीन, इन्द्रियविजयी, लज्जाशील आदि अनेक विशेषताओं से युक्त होते हैं । उपाध्यायजी' 'जिन' नहीं परन्तु जिन के सदृश साक्षात् ज्ञान का प्रकाश करते हैं। ___ समुद्र के समान गम्भीर दूसरों से अपराभूत (कष्टों से अबाधित) अविचलित, अपराजेय तथा श्रु तज्ञान से परिपूर्ण, षटकाय के रक्षक श्री उपाध्याय (बहुश्रुत) महाराज कर्मों का क्षय करके उत्तमगति मोक्ष को प्राप्त हुए हैं। साधक जीवन में विवेक और विज्ञान की बहुत बड़ी आवश्यकता है। भेद विज्ञान के द्वारा जड़ और चेतन (शरीर और आत्मा) के पृथक्करण का भान होने पर ही साधक अपना जीवन ऊँचा और आदर्श बना सकता है; और उक्त आध्यात्मिक विद्या के शिक्षण का भार उपाध्याय पर है । उपाध्याय मानव-जीवन की अन्तःप्रथियों को बहुत ही सूक्ष्म पद्धति से सुलझाते हैं और अनादिकाल से अज्ञानान्धकार में भटकते हुए भव्य प्राणियों को विवेक का-सम्यग्ज्ञान का प्रकाश देकर अज्ञान, मोह की ग्रन्थियों से विमुक्त कराते हैं । यही उपाध्याय की विशेषता है। इसी कारण उपाध्याय को गुरु पद में द्वितीय स्थान दिया गया है। १ 'अजिणा जिण संकासा' २ समुद्दगंभीरसमा दुरासया अचक्किया केणइ दुप्पहंसया। सुयस्स पुण्णा विउलस्स ताइणो, खवित्त कम्मं गइमुत्तमं गया । -उत्तराध्ययन अ०११ गा० ३१
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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