SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 263
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपाध्याय का सर्वांगीण स्वरूप : २११ सहस्रों तर्क-वितर्क वाले तथा अनेकान्त - स्यादवादरूप वज्र के धारक असंख्य भव्य प्राणियों के अधिपति उपाध्यायजी सुशोभित होते हैं । (१०) सहस्रांशु सूर्यसम - जैसे सहस्र किरणों से जाज्वल्यमान अप्रतिम प्रभा से अन्धकार को नष्ट करने वाला सूर्य गगनमण्डल में शोभा पाता है, उसी प्रकार निर्मलज्ञान रूपी किरणों से मिथ्यात्व और अज्ञान के अन्धकार को नष्ट करने वाले उपाध्यायजी जैन संघरूप गगन में सुशोभित होते हैं । (११) शारद चन्द्रोपम - जैसे ग्रहों, नक्षत्रों और तारागण से घिरा हुआ शरद पूर्णिमा की रात्रि को निर्मल और मनोहर बनाने वाला चन्द्रमा अपनी समस्त कलाओं से सुशोभित होता है, उसी प्रकार साधुगण रूप ग्रहों, साध्वीगण रूप नक्षत्रों एवं श्रावक-श्राविका रूप तारा मण्डल से घिरे हुए भूमण्डल को मनोहर बनाते हुए ज्ञानरूप कलाओं से उपाध्यायजी शोभा पाते हैं । (१२) धान्य कोष्ठागारसम - जैसे -- चूहे आदि के उपद्रवों से रहित और सुदृढ़ द्वारों से अवरुद्ध तथा विविध धान्यों से परिपूर्ण कोठार शोभा देता है | वैसे ही निश्चय - व्यवहार रूप सुदृढ़ कपाटों से युक्त तथा १९ अंग, १२ उपांग ज्ञानरूप धान्यों से परिपूर्ण उपाध्याय शोभा पाते हैं । (१३) जम्बू सुदर्शन वृक्षसम - जैसे उत्तर कुरुक्षेत्र में जम्बूद्वीप क्षेत्र के अधिष्ठाता अणाढय (अनाहत) देव का निवास स्थान जम्बूसुदर्शन वृक्ष पत्त े, फूल, फल आदि से सुशोभित होता है । उसी प्रकार उपाध्यायजी आर्य 1 क्षेत्र में ज्ञान रूपी वृक्ष बनकर अनेक गुणरूपी पत्र-पुष्प - फलों से शोभा पाते हैं । (१४) सीतानदीतुल्य - जैसे महाविदेह क्षेत्र की सीतामहानदी ५३२००० नदियों के परिवार से शोभित होती है उसी प्रकार उपाध्यायजी हजारों श्रोताओं के परिवार से शोभायमान होते हैं । (१५) सुमेरुपर्वतसम - जैसे पर्वतराज सुमेरु उत्तम औषधियों और चार वनों से सुशोभित होता है, वैसे ही उपाध्यायजी अनेक लब्धियों से शोभा पाते हैं । (१६) स्वयम्भूरमण समुद्रसम - विशालतम स्वयम्भूरमण समुद्र अक्षय सुस्वादु जल से सुशोभित होता है उसी प्रकार अक्षय ज्ञान से पूर्ण उपाध्यायजी उस ज्ञान को भव्यजीवों के लिए रुचिकर शैली में प्रकट करते हुए शोभा पाते हैं ।
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy