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________________ २१० : जैन तत्त्वकलिका - द्वितीय कलिका for अधिक शोभा पाता है । वासुदेव के पांचजन्य शंख की ध्वनि सुनकर जैसे शत्रु सेना भाग जाती है, वैसे ही उपाध्याय की उपदेश ध्वनि सुनकर मिथ्यात्व एवं मिथ्याज्ञान पलायन कर जाते हैं । * (२) काम्बोज अश्वोपम - सर्वाभूषण - सुसज्जित काम्बोजदेशीय कन्थक अश्व जैसे जातिमान् और वेगवान होने से दोनों प्रकार से शोभा पाता है, वैसे ही सर्वशास्त्रज्ञान से सुसज्जित उपाध्याय स्वाध्याय और प्रवचन की मधुर ध्वनि-वाद्यों से शोभायमान होते हैं । (३) चारणादि- विरुदावलीतुल्य- जैसे भाट, चारण आदि द्वारा की गई विरुदावली से प्रोत्साहित होकर शूरवीर सुभट शत्रु को पराजित कर देते हैं, वैसे ही उपाध्यायजी चतुविध संघ की गुणोत्कीर्त्तनरूप विरुदावली से उत्साहित होकर मिथ्यात्व को पराजित करते हुए सुशोभित होते हैं । (४) वृद्धहस्तीसम — जैसे वृद्ध हस्ती हथिनियों के वृन्द से सुशोभित होता है, वैसे ही श्रुत-सिद्धान्त ज्ञान की प्रौढ़ता से युक्त उपाध्याय अनेक ज्ञानी-ध्यानियों के वृन्द से परिवृत होकर शोभा पाते हैं । (५) तीक्ष्ण शृगयुक्त धौरेय वृषभसम - जिस प्रकार अनेक गायों के झुण्ड से युक्त तथा दोनों तोखे सींगों वाला धौरेय बैल शोभा पाता है, वैसे ही उपाध्याय मुनियों के वृन्द से युक्त एवं निश्चयनय व्यवहारनय रूप दोनों सींगों से युक्त होकर शोभा पाते हैं । • (६) तीक्ष्ण दाढायुक्त केसरीसिंहसम - जैसे तीक्ष्ण दाढ़ों से युक्त केशरीसिंह वनचरों को क्षुब्ध करता हुआ शोभा पाता है, वैसे ही उपाध्याय श्री सप्तनरूप तीक्ष्ण दाढ़ों से प्रतिवादियों का मानमर्दन करते हुए सुशोभित होते हैं। (७) सप्तरत्नयुक्त वासुदेवसम - - - जैसे त्रिखण्डाधिपति वासुदेव सातरत्नों से सुशोभित होते हैं, वैसे ही ज्ञानादि रत्नत्रयरूप त्रिखण्ड पर अधिकार प्राप्त सप्तनयरूपी सप्तरत्नों के धारक उपाध्यायजी कर्मशत्रुओं को पराजित करते हुए शोभा पाते हैं । 6. (८) षट्खण्डाधिपति चक्रवर्तीसम - जैसे षट्खण्डाधिपति एवं १४ रत्नों के धारक चक्रवर्ती शोभा पाते हैं, उसी प्रकार षट्द्रव्यज्ञान के अधिकृत ज्ञाता तथा चतुर्दश पूर्व रूप चतुर्दश रत्न-धारक उपाध्यायजी शोभा पाते हैं । (e) सहस्रनेत्र - देवाधिपति शक्र ेन्द्रसम - जैसे सहस्रनेत्रधारक एवं असंख्य देवों का अधिपति शक्रेन्द्र वज्रायुध से शोभा पाता है, उसी प्रकार
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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