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उपाध्याय का सर्वामीण स्वरूप : २०६
(६) व्रतप्रभावना-घी, दूध, दही आदि विगइयों (विकृतिकारी पदार्थों) का त्याग, अल्प उपधि, मौन, कठोर अभिग्रह, कायोत्सर्ग, यौवन में इन्द्रियनिग्रह, दुष्कर क्रिया आदि का आचरण करके धर्म का प्रभाव बढ़ाना।
(७) विद्याप्रभावना-रोहिणी, प्रज्ञप्ति, परकाय-प्रवेश, गगनगामिनी आदि विद्याओं तथा मन्त्र शक्ति, अंजनसिद्धि, गुटिका, रससिद्धि आदि अनेक विद्याओं (देवी-मंत्रों) में उपाध्याय महाराज प्रवीण हों; फिर भी इनका प्रयोग न करें। यदि जैन धर्म की प्रभावना का कोई विशेष अवसर आ जाए तो उसका प्रयोग कर सकते हैं किन्तु इसके लिए यह विधान है कि बाद में उसका प्रायश्चित्त अवश्य ग्रहण करके शुद्ध हों।
(E) कवित्व प्रभावना-नाना प्रकार के छंद, कविता, ढाल, स्तवन, आदि काव्यों की रचना द्वारा गूढ़ और दुरूह विषय को रसप्रद बनाकर आत्मज्ञान की शक्ति प्राप्त करना और उन कविताओं के माध्यम से जैन धर्म की प्रभावना बढ़ाना।
- इन आठ प्रकार की प्रभावनाओं में से किसी भी प्रभावना द्वारा जैनधर्म की महिमा एवं गरिमा को बढ़ाना, जनता को प्रभावित करके जैनधर्मरसिक बनाना। प्रभावना से किसी प्रकार का चमत्कार पैदा हो, या उससे लोगों में अपनी प्रतिष्ठा या प्रशंसा होतो हो तो उसका गर्व न करे । अनेक गुणसम्पन्न एवं समर्थ होकर भी सदैव निरभिमान एवं नम्र रहे ।
इस प्रकार द्वादशांगी के पाठक, करण सप्तति एवं चरण सप्तति के गुणों से युक्त, आठ प्रभावनाओं के धारक और तीन योगों का निग्रह करने वाले, ये उपाध्यायजी के २५ गुण हैं ।'
उपाध्यायजी की सोलह उपमाएँ ... उत्तराध्ययन सत्र में उपाध्याय (बहश्र त) को सोलह उपमाएँ, उनकी विशेषताओं को प्रकाशित करने के लिए दी गई हैं, वे इस प्रकार हैं।
(१) शंखोपम-शंख में भरा हुआ दूध खराब नहीं होता, बल्कि विशेष शोभा पाता है, वैसे ही उपाध्यायजी द्वारा प्राप्त ज्ञान नष्ट नहीं होता,
१ कोई-कोई आचार्य ग्यारह अंग और बारह उपांग के पाठक तथा चरण-सत्तरी
और करणसत्तरी के गुणों से युक्त; यों २५ गुण उपाध्यायजी के बताते हैं। -सं. २ उत्तराध्ययन सूत्र अ. ११ गा० १५ से ३० तक