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________________ उपाध्याय का सर्वांगीण स्वरूप : २०७ करण एक जैन पारिभाषिक शब्द है । करण सत्तर' प्रकार का हैअशन आदि चार प्रकार की पिण्डविशुद्धि, पांच प्रकार की समिति, बारह प्रकार की भावना, बारह प्रकार की भिक्षप्रतिमा, पांच प्रकार का इन्द्रियनिरोध, पच्चीस प्रकार को प्रतिलेखना, तीन गुप्तियाँ और चार प्रकार का अभिग्रह, यह सत्तर प्रकार का करण है। चरणसप्तति से युक्त उपाध्यायजी के गुणों में एक गुण है-चरणसप्तति से युक्त होना। चरण का अर्थ है-चारित्र । 'चरण' और 'करण' में अन्तर यह है कि जिसका नित्य आचरण किया जाए उसे चरण कहते हैं और जो प्रयोजन होने पर किया जाए और प्रयोजन न होने पर न किया जाए. उसे 'करण' कहते हैं । ___ करण के समान चरण के भी सत्तर प्रकार हैं-पाँच महाव्रत, क्षमा आदि दशविध श्रमणधर्म, सत्रह प्रकार का संयम, दस वैयावत्य, नौ ब्रह्मचय की गुप्ति, ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप रत्नत्रय, बारह प्रकार का तप और चार कषायों का निग्रह; यह सत्तर प्रकार का चरण है। आठ प्रकार की प्रभावनाओं से सम्पन्न उपाध्यायजी महाराज आठ प्रकार की प्रभावनाओं से सम्पन्न होते हैं । प्रभावना का अभिप्राय यहां धर्म की प्रभावना करना है। उपाध्यायजी इन गुणों से धर्म-प्रभावना करते हैं । प्रभावना को सम्यग्दर्शन का अंग भी कहा जाता है। प्रभावना मुख्यतया ८ प्रकार से होती है । वे आठ प्रकार ये हैं (१) प्रवचन प्रभावना-सभी जैन शास्त्रों, प्रसिद्ध जैन ग्रन्थों तथा षड्दर्शनों एवं न्यायशास्त्र आदि अनेक ग्रन्थों का अध्ययन, मनन, चिन्तन, करण सप्तति के ७० बोलों में से निर्दोष आहार, वस्त्र, पात्र और स्थान का सेवन यह चतुर्विध पिण्डविशुद्धि है, जिसका वर्णन एषणा समिति में हो चुका है। साधु की बारह प्रतिमाएं कायक्लेश तप के अन्तर्गत हैं। इन्द्रियनिग्रह प्रतिसंलीनता तप में वर्णित है। प्रतिलेखन चतुर्थ समिति में तथा तीन गुप्तियों का कथन चारित्राचार में आ चुका है। -सम्पादक २ पिंडविसोही, समिई, भावणा, पडिमा, इदियणिग्गहो। पडिलेहणं गुत्तीओ, अभिग्गहं चेव करणं तु ॥ --ओघनियुक्तिभाष्य ३ वय समणधम्म, संजम वेयावच्चं च बंभगुत्तीओ। नाणाइतियं तवं कोहनिग्गहाई चरणमेयं ॥ -ओघनियुक्तिभाष्य
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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