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२०६ : जैन तत्त्वकलिका - द्वितीय कलिका
है । इस रथ - मूसल और महाशिलाकंटक संग्राम में एक करोड़ अस्सी लाख मनुष्यों का संहार हुआ, जिनमें से एक देवगति में, एक मनुष्य गति में और शेष सब नरक गति और तिर्यञ्च गति में उत्पन्न हुए। हार देव ले गए; हाथी आग की खाई में गिरकर मर गया, इत्यादि परिग्रहासक्ति के कटु परिणामों का प्रेरक वर्णन इस सूत्र में है ।
(e) कल्पावर्तसिका सूत्र – इसे अन्तकृद्दशांगसूत्र का उपांग माना जाता है । इसमें दस अध्ययन हैं, जिनमें श्रेणिक राजा के पौत्र कालिक आदि दस कुमारों के पुत्र पद्म, महापद्म आदि दीक्षा लेकर, संयम पालन करके कल्पावतंसक देवलोक में उत्पन्न हुए; इत्यादि वर्णन है ।
(१०) पुष्पिका सूत्र - यह अनुत्तरोपपातिक सूत्र का उपांग माना जाता है। इसमें दस अध्ययन हैं। इसमें चन्द्र, सूर्य, शुक्र, मानभद्र आदि की पूर्व-जन्म की धर्मकरणीका तथा सोमल ब्राह्मण एवं श्रीपार्श्वनाथ स्वामी का संवाद और बहुपुत्रिका देवी का वर्णन है ।
(११) पुष्पचूलिका सूत्र - इसे प्रश्नव्याकरण सूत्र का उपांग माना गया है । इसमें १२ अध्ययन हैं । भगवान् पार्श्वनाथ की दस विराधक साध्वियाँ - श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि, लक्ष्मी, इला, सुरा, रसा और गन्धा -- जो यहाँ से काल करके देवियाँ बनीं, उनका वर्णन इस सूत्र में है ।
(१२) वृष्णिदशा सूत्र - यह विपाकसूत्र का उपांग माना जाता है । इसमें बलभद्रजी के निषढ़कुमार आदि पुत्रों का वर्णन है, जो संयम धारण करके अनुत्तर विमानवासी देव हुए ।
निरयावलिका, कल्पावर्तसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा इन पांचों उपांग शास्त्रों का एक यूथ है, जो निरयावलिका नाम से प्रसिद्ध है ।
इन बारह उपांगों के तथा चार मूल सूत्रों (उत्तराध्ययन, दशवैकालिक. नन्दीसूत्र और अनुयोगद्वार ) के एवं चार छेद सूत्रों (दशाश्रु तस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहारसूत्र और निशीथसूत्र' ) के भी उपाध्यायश्री ज्ञाता और पाठक होते हैं ।
करणसप्तति से युक्त
उपाध्याय जी के गुणों में एक गुण है— करणसप्तति से युक्त । करण का अर्थ है - जिस अवसर पर जो क्रिया करणीय हो, उसे करना ।
१ इन सबका विस्तृत वर्णन आगे 'सूत्र धर्म' के प्रकरण में किया जाएगा। सं