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२०२ : जैन तत्वकलिका — द्वितीय कलिका
तीनों योगों (मन-वचन-काया) को वश में करने वाले, ये २५ गुण उपाध्यायश्री के हैं । '
उपाध्यायजी के २५ गुण इस प्रकार भी हैं - श्रुत पुरुष के एकादश अंग (शास्त्र), और चतुर्दश पूर्व (अवयवांग ) । इन ११ + १४=२५ मुख्य शास्त्रों को स्वयं पढ़े और भव्य प्राणियों के कल्याण एवं परोपकार के लिए अन्य योग्य व्यक्तियों (साधु-साध्वियों या योग्य श्रावकवर्ग) को पढ़ावे । यही मुख्य पच्चीस गुण उपाध्याय के हैं ।
द्वादश अंगशास्त्रों का परिचय
द्वादश अंगशास्त्रों के नाम इस प्रकार हैं ।
(१) आचारांग, (२) सूत्रकृतांग, (३) स्थानांग, (४) समवायंग, (५) व्याख्याप्रज्ञप्त्यंग, (६) ज्ञातृधर्मथांग, (७) उपासकदशांग, (८) अन्तकृद्दशांग, (E) अनुत्तरीपातिक, (१०) प्रश्नव्याकरण ( ११ ) विपाकसूत्र और (१२) दृष्टिवाद |
विश्व में धर्म ज्ञान के आधार पर टिका हुआ है और ज्ञान शास्त्रों के आधार पर टिका हुआ है, जिन्हें जैन शब्दावली में 'आगम' कहते हैं । साधारणतया केवली भगवान् की वाणी के अनुकूल जितने भी ग्रन्थ हैं, वे सभी शास्त्र कहलाते हैं । किन्तु इन सब में मौलिक बारह अंगशास्त्र ही हैं, जो साक्षात् अरिहन्त भगवान की वाणी है और जिसे गणिपिटक कहते हैं, इनकी रचना ' साक्षात् गणधरों के द्वारा हुई है ।
इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
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(१) आचारांग - इसके दो श्र तस्कन्ध हैं । प्रथम श्र तस्कंध के ई और द्वितीय श्रुतस्कन्ध के १६ अध्ययन हैं । इस सूत्र के ८५ उद्देशनकाल हैं । इस अंगशास्त्र में पंचाचार का बहुत ही सुन्दर ढंग से छोटे-छोटे सूत्रों में निरूपण किया गया है जैसे कि — ज्ञानाचार ( ज्ञानविषयक), दर्शनाचार ( दर्शनविषयक),
१ बारसंगविऊ बुद्धा
करण-चरणजुओ । पभावणा- जोगनिग्गहो उवज्झाय गुणं वंदे ॥
२ जं इमं अरिहंतेहि भगवंतेहि उप्पण्णनाणदंसण धरेहि, तेलुक्कनिरिक्खमहिय पूइह तीय पडुप्पणमयागय जाणएहि सव्वष्णू हि सव्वदरिसीहि पणीयं दुवाल - सगं गणिपिडगं तं जहा (१) आयारो, (२) सूयगडो, (३) ठाणं, (४ समवाओ, (५) वियाहपण्णत्ती, (६) नायाधम्मकहाओ, (७) उवासगदसाओ, (८) अंतगड - दसाओ, (E) अणुत्तरोववाइयदसाओ, (१०) पण्हावागरणाई, (११) विवागसुयं (१२) दिठिवाओ । ——नन्दीसूत्र, सू० ४०