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________________ उपाध्याय का सर्वांगीण स्वरूप : २०१ से सम्यक् सुरक्षा करके अवश्य ही मोक्ष अथवा निर्वाणपद प्राप्त कर लेते हैं। उपयुक्त शास्त्र-वचन का रहस्य यह है कि स्थानांग सूत्र के अनुसार इस अनादि संसार चक्र से पार होने के लिए भगवान् ने दो मार्ग बतलाए हैं। अर्थात् इन्हीं दो कारणों से जीव अनादि संसार चक्र से पार हो जाते हैंविद्या (ज्ञान) से और चारित्र से' । तात्पर्य यह है कि जब तक अध्यात्मविद्या समुपलब्ध नहीं होती, तब तब धर्माधर्म आदि का सम्यक्बोध नहीं हो सकता । सम्यक्बोध के अभाव में आत्मा और कर्मों का जो परस्पर क्षीर-नीरवत् सम्बन्ध हो रहा है, उसका ज्ञान कैसे होगा ? यदि कर्म और आत्मा के सम्बन्ध के विषय में अनभिज्ञता है तो फिर उन्हें पृथक-पृथक करने के लिए अर्थात्-इन दोनों के संयोग-सम्बन्ध को तोड़ने के लिए पुरुषार्थ कैसे हो सकेगा ? अतः सर्वप्रथम श्र तविद्या-शास्त्रज्ञान के अध्ययन करने की और तत्पश्चात् चारित्र के माध्यम से आत्मा से कर्मों को पृथक् करने हेतु महाव्रत, गुप्ति, समिति, श्रमणधर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, त्याग-तप, प्रत्याख्यान आदि की क्रियाएँ अपनाने की अत्यन्त आवश्यकता है। और शास्त्राध्ययन के द्वारा अध्यात्म-विद्या प्राप्त कराने की महती सेवा उपाध्याय करते हैं । इसी सेवा के फलस्वरूप उन्हें मोक्ष प्राप्त होता है। उपाध्याय के पच्चीस गुण उपाध्याय के मुख्यतया पच्चीस गुण शास्त्र में बताए गए हैं। वे इस प्रकार हैं -(१-१२) बारह अंग के पाठक वेत्ता (अध्येता और ज्ञाता), (१३-१४) चरण सप्तति (सत्तरी) और करण सप्तति (सत्तरी), (१५ से २२) आठ प्रकार की प्रभावना से धर्म का प्रभाव बढ़ाने वाले और (२३-२४-२५) १ (प्र०) 'आयरिय-उवज्झाएणं भंते ! सविसयंसि गणंसि अगिलाए संगिण्हमाणे अगिलाए उवगिण्हमाणे कतिहिं भवगाहणेहि सिज्झति जाव अंतं करेति ?' (उ०) गोयमा ! अत्थैगतिए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झति, अत्थेगतिए दोच्चेणं भवगग्गहणेणं सिज्झति, तच्चं पुण भवग्गहणं णातिक्कमति । -भगवती सूत्र श० ५, उ० ६, सू० २११ २ दोहिं ठाणेहिं जीवे......"विज्जाए चेव चरित्तेण चेव। -स्थानांग स्था० २
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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