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२०० : जैन तत्त्वकलिका–द्वितीय कलिका
मार्ग के पथिक प्रत्येक साधक को ज्ञान का प्रकाश पाना आवश्यक है। यथार्थ ज्ञानप्रकाश होने पर ही साधक स्व-परकल्याण कर सकता है।
उपाध्याय धर्म संघ के साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका वर्ग में ज्ञान की ज्योति जगाता है। वह अज्ञानान्ध व्यक्तियों को ज्ञान का नेत्र देता है। स्वयं शास्त्र पढ़ना और संघ के ज्ञानपिपासु साधुवर्ग को शास्त्र पढ़ना 'उपाध्याय' का कर्तव्य होता है । यह पद भी अधिकार का नहीं, साधकों को ज्ञानाराधनासाधना कराकर सुयोग्य ज्ञानी बनाने का है । जीवन की अटपटी गुत्थियों को शास्त्र के माध्यम से, नय और प्रमाण, निश्चय और व्यवहार, उत्सर्ग और अपवाद की शान पर चढ़ाकर सुलझाने वाला, शास्त्रों के गूढ़ रहस्यों को खोलने वाला उपाध्याय होता है। उपाध्याय संघ में आध्यात्मिक, दार्शनिक, तात्त्विक एवं धार्मिक शिक्षा का सबसे बडा प्रतिनिधि होता है। वह मोक्ष-साधना के पथिकों का महत्त्वपूर्ण साथी, श्रुत-गुरु और जीवन-निर्माता है। आचार्य की अनुपस्थिति में उपाध्याय संघ का नेतृत्व कर. सकता
उपाध्याय का कर्तव्य । वस्तुतः देखा जाए तो संघस्थ साधु-साध्वी वर्ग को विधिपूर्वक शास्त्रों का पठन-पाठन कराना उपाध्याय का मुख्य कर्तव्य है। इसी हेतु, से सूयोग्य ज्ञानी साधक को उपाध्याय पद पर नियुक्त किया जाता है; ताकि संघ में ज्ञान की ज्योति अखण्ड जलती रहे और साधकों की धर्म में दृढ़ता बनी रहे।
उपाध्याय पद की उपलब्धि विचारणीय यह है कि आचार्य एवं उपाध्याय को सम्यक्तया संघ की सेवा करने से इहलौकिक-पारलौकिक किस सूफल की प्राप्ति होती है ? उत्तर में शास्त्रकार कहते हैं-आचार्य और उपाध्याय बिना थके, बिना खिन्नता के, बिना झुझलाए अपने गण (संघ या गच्छ) में शास्त्रों के सूत्र और अर्थ का ज्ञान दान करते हुए, उसका सम्यक्तया धारण पोषण (ग्रहण) एवं संरक्षण (पालन) करते हए कई-कई तो उसी भव में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाते हैं, कई दूसरे भव में मोक्ष प्राप्त करते हैं किन्तु तीसरा भव (जन्म) तो अतिक्रमण नहीं करते, अर्थात् तीसरे भव में तो अवश्य ही सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाते हैं ।
इस शास्त्र-कथन से स्वतःसिद्ध हो जाता है कि आचार्य और उपाध्याय दोनों संघ की विशिष्ट महत्त्वपूर्ण सेवा करके तथा संघ की चारित्र और ज्ञान