________________
उपाध्याय का सर्वांगीण स्वरूप
पंच परमेष्ठी में चतुर्थ पद तथा आराध्य गुरुतत्त्व में द्वितीय स्थान 'उपाध्याय' का है । यह पद भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । जिस प्रकार संघ में मुख्यतया चारित्र की साधना के लिए आचार्य का प्रथम स्थान माना जाता है, उसी प्रकार संघ में मुख्यतया ज्ञान की साधना के लिए ' उपाध्याय' का द्वितीय स्थान माना जाता है ।
जो साधक गुरु आदि गीतार्थ महामुनियों के पास सदैव रहते हैं, जो शुभयोग तथा उपधान तप के अनुष्ठान द्वारा सम्पूर्ण अंग- उपांग-आगमों तथा अन्य शास्त्रों का स्वयं अध्ययन करते हैं और जिनके पास आ (रह) कर अनेक साधु-साध्वी या योग्य सुपात्र श्रावक-श्राविका अपनी-अपनी योग्यतानुसार शास्त्रों का अध्ययन करते हैं, अथवा मोक्षपथिक योग्य जिज्ञासु साधु-साध्वियों को विधिपूर्वक शास्त्राध्यन कराकर जो सुयोग्य शास्त्रज्ञ बनाते हैं, इस प्रकार पापाचार से विरक्ति और सदाचार के प्रति अनुरक्ति की शिक्षा देने वाले 'उपाध्याय' कहलाते हैं । '
उपाध्याय पद की महिमा
चारित्र की साधना के समान ज्ञान की साधना भी मोक्ष का अंग है । यदि साधक के जीवन में ज्ञान का प्रकाश नहीं होगा तो वह चारित्र का पालन सम्यक् रूप से नहीं कर सकेगा । अज्ञानान्धकार से घिरे हुए साधक को न तो
- का विवेक होता है, न ही संसार और मोक्ष के मार्ग का वह पृथक्करण कर सकता है और न वह धर्म, अधर्म, पुण्य और पाप, पुण्य और धर्म, उत्थान और पतन, उत्सर्ग और अपवाद, निश्चय और व्यवहार, मार्ग और मंजिल, साधन और साध्य का ठीक्क विवेचन - विश्लेषण कर सकता है । अतएव मोक्ष
१ (क) 'उप समीपे अधीते यस्मादसौ उपाध्यायः ।
(ख) स्वयं शास्त्राण्यधीतेऽन्यान् अध्यापयति इति उपाध्यायः ।
२ अन्नाणी कि काही, किंवा नाही इ सेयपावगं । - दशवैकालिक अ० ४ गा० १०