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१९८ : जैन तत्त्वकलिका-द्वितीय कलिका
यह है—अष्टविधगणि सम्पदा, जिसका निरूपण स्थविर भगवन्तों ने किया है।
प्रकारान्तर से आचार्य के छत्तीस गुण पूर्वोक्त आठ प्रकार की गणिसम्पदा और उनमें से प्रत्येक सम्पदा के चार-चार भेद होने से कुल बत्तीस भेद हुए और ऋणमुक्त होने के लिए आचार्य द्वारा सिखाई जाने वाली चार प्रकार की विनय प्रतिपत्तिः, यों कुल मिलाकर ३२+४=३६ भेद हुए। प्रकारान्तर से ये छत्तीस गुण भी आचार्य के होते हैं।
____ आचार्य को गुरुपद में प्रथम स्थान क्यों?
निष्कर्ष यह है कि आचार्य इन पूर्वोक्त समग्र गुणों से सम्पन्न होने चाहिए। इन गुणों में से कई गुण आध्यात्मिक विकास की दष्टि से अनिवार्य हैं, कुछ व्यवहारिक विकास की दृष्टि से आवश्यक हैं और कई गण सांघिक (सामाजिक) दष्टि से उपयुक्त हैं। इन गुणों की वृद्धि से आचार्य स्वकल्याण तो करता ही है, अपने सम्पर्क में रहने और आने वाले अनेक भव्य आत्माओं का भी कल्याण करता है। इन गुणों से चतुर्विध संघ की भी सब प्रकार से सुरक्षा और हितवृद्धि कर सकता है । गुणों की स्वाभाविक शक्ति से वह विरोधी, नास्तिक, दुर्जन, प्रतिकूल एवं निन्दक जनों को भी प्रभावित करके धर्म-पथ पर आरूढ़ कर सकता है। यही कारण है कि आचार्य को गुरुपद में प्रथम स्थान दिया गया है।
१ .."कहं तु ? साहम्मिया अप्पसद्दा, अप्पझंझा, अप्पकलहा, अप्पकसाया, अप्प
तुमंतुमा, संजमबहुला, संवरबहुला, समाहिबहुला, अप्पमत्ता, संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा णं एवं च णं विहरेज्जा । से तं भार पच्चोरूहणत्ता। एस खलु सा थेरेहिं भगवंतेहिं अट्ठविहा गणिसंपया पण्णत्ता, ति बेमि ।
-दशाश्रु तस्कन्ध अ० ४