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१६६ : जैन तत्त्वकलिका-द्वितीय कलिका गुणोत्कीर्तन करना-यथार्थ गुणों का प्रकाशन करना-प्रशंसा करना वर्णसंज्वलनता-विनय है । वर्ण संज्वलनता विनय भी चार प्रकार का है- (१) यथार्थ गुणानुवाद करना-आचार्यादि के यथार्थ गुणों की प्रशंसा करना। (२) अवर्णवादी का प्रतिघात करना—जो व्यक्ति आचार्यादि की, या संघादि की निन्दा करते हैं, उन्हें बदनाम करते हैं, उनका प्रतीकार करना; या तिरस्कार, उपालम्भ आदि के द्वारा उनका प्रतिवाद करके समझाना । (३) वर्णवादी के गुणों का प्रकाशन करना-जो व्यक्ति आचार्यादि या संघ का यथार्थ गुणगान करते हैं, उन्हें धन्यवाद देना, उन्हें प्रोत्साहित करना। (४) वृद्धों की सेवा करना-जो अपने से गुणों में आगे बढ़े हुए हैं (वृद्ध) हैं, आत्मिक गुणों से समृद्ध हैं, उनकी सेवा करना ।'
(४) भार-प्रत्यारोहणता-विनय-जिस प्रकार राजा अपने सुयोग्य अमात्य एवं राजकुमार आदि को राज्य का भार सौंपकर निश्चिन्त हो जाता है, वैसे ही आचार्य अपने सुयोग्य शिप्य या साधक को संघ (गच्छ या गण) का भार सौंपकर स्वयं निश्चिन्त होकर समाधि में लीन हो जाता है, इसे भारप्रत्यवतारणता-विनय कहते हैं । इसके भी चार प्रकार हैं-(१) असंगृहीत परिजन को संगृहीत करना-जो शिष्य असंगृहीत हैं, अर्थात्-जिनके गुरु आदि कालधर्म को प्राप्त हो चुके हैं, अथवा क्रोधी या प्रपंची होने अथवा अन्य किसी कारण से उन्हें कोई संगृहीत (अपने साथ सम्मिलित) न करता हो, ऐसे शिष्य समूह को आचार्य का विनीत शिष्य अपने पास या आचार्य के पास अपनी देख-रेख में रखे । (२) नवदीक्षित को आचार-विचार सिखाना-नवदीक्षित शिष्य को ज्ञानाचार आदि पंचाचार एवं आचार विधि सिखाने के लिए अपने पास रखे, और विधिपूर्वक साध्वाचार विधि से उसे प्रशिक्षित करे। (३) ग्लानसार्मिकवैयावृत्य में तत्परता–यदि कोई सार्मिक साधु ग्लानावस्था या रुग्णावस्था को प्राप्त हो गया हो तो उसकी वात्सल्यपूर्वक यथाशक्ति वयावत्य (सेवा शुश्र षा) करे । क्योंकि रुग्ण साधु की सेवा करने से कर्मों की निर्जरा और उत्कृष्ट भावों से अनन्त ज्ञान की प्राप्ति होती है । (४) सार्मिकों में उत्पन्न अधिकरण शमनार्थ उद्यत रहे-सार्मिक साधुओं में या सार्मिकों
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"वण्णसंजलणया चउन्विहा पण्णत्ता तं जहाअहातच्चाणं वाया भवइ १, अवण्णवायं पडिहणित्ता भवइ २, वण्णवायं अणुवुहित्ता भवइ ३, आयवुड्ढसेविया वि भवइ ४ । से तं वण्णसंजलया।
-दशाश्रुत स्कन्ध अ०४