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गुरु स्वरूप : १६५
यादि क्रियाओं में विघ्न पड़ता हो, तो गुणवान् शिष्य स्वयं गच्छवासी साधुओं के लिए अनुत्पन्न उपकरण का उत्पादन करे। (२) पुरातनउपकरण-संरक्षण-(पुरातन या जीर्ण उपकरण-संरक्षित गुप्त रखे) । (३) संगोपित-उपकरण प्रत्युद्धरण-(यदि पुराना-जीर्ण उपकरण मरम्मत करने से काम में आ सकता हो, उसे मरम्मत करके उपयोग में ले।) (४) यथायोग्य-उपकरण संविभाग- (जिस साध के पास वस्त्रादिउपकरण कम हो, उसे अपनी निश्राय का उपकरण दे दे तथा वस्त्रादि उपकरणों का साधुओं में यथायोग्य संविभाग करे ।)
(२) सहायता विनय-अन्य प्राणियों को सुख पहुँचाना तथा उनके दुःख का निवारण करना सहायता विनय है। सहायता-विनय के भी ४ प्रकार है-(१) अनुकूलवचन-प्रयोगता-(प्रत्येक प्राणी के साथ अनुकूल-मधुर वचन बोलना या बुलाना, जिस (मृदुभाषण) से उसकी आत्मा को शान्ति मिले ।) (२) अनुलोमकाय क्रियता-(गुरु आदि को शारीरिक सेवा करने का पुण्यलाभ मिले तो अनुकुल रीति से करे, ताकि उनके किसी भी अंगोपांग को क्षति न पहँचे और उनकी आत्मा को शान्ति तथा शरीर को सुखप्राप्त हो) (३) प्रतिरूपकाय-स्पर्शनता—(अन्य सार्मिक साधुओं की यथाविधि शारीरिक सेवा करे, जिससे उनको शारीरिक सुख प्राप्त हो।) (४) सर्वकार्यों में अप्रतिलोमता-(जिन-जिन कार्यों में गुरु ने नियुक्त किया हो, उन सेवादि कार्यों को उत्साह-पूर्वक सरलता से, श्रद्धा से करे, किसी प्रकार का हठ, मिथ्याभिनिवेश, विरोध या मिथ्याभिमान करके प्रतिकूलता नहीं धारण करना चाहिएं, किन्तु ऋजुता धारण करनी चाहिए।) यह चार प्रकार का सहायता-विनय दूसरों को सुख-शांति पहुँचाने का तथा अलभ्य पुण्यलाभ एवं निर्जरा-लाभ का कार्य है । २
(३) वर्ण संज्वलनता-विनय-आचार्य तथा अन्य गुणवान् साधुओं का
१ .."उवगरण-उप्पायणया चउन्विहा पण्णता, तं जहा
अणुप्पणाई उवगरणाई उप्पाइत्ता भवइ १, पोराणाई उवगरणाइं सारक्खित्ता भवइ, संगोवित्ता भवडू २, परित्तं जाणित्ता पच्चुद्धरित्ता भवइ ३, आहाविधं संविभइत्ता भवइ ४, से तं उवगरण-उप्पायणया । ..' साहिल्लया चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहाअणुलोमवइ सीहते यावि भवइ १, अणुलोमकाय किरियत्ता २, पडिरूवकाय संफासणया ३, सव्वत्थेसु अपडिलोमया ४ । से तं साहिल्लया।