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________________ १६४ : जैन तत्त्वकलिका - द्वितीय कलिका पूरी कर देनी चाहिए, या पूर्ति में सहयोग देना चाहिए; प्रवचन विषयक शंका हो तो वह भी दूर करनी चाहिए । (४) क्रोधादि अंतरंग दोषों से विमुक्त होकर आत्मा को पवित्र और सुप्रणिहितात्मा बनाना चाहिए । ये चारों दोषनिर्घातना विनय के चार अंग' हैं । आचार्य को अपने शिष्य वर्ग को तथा सम्पर्क में आने वाले श्रद्धाशील गृहस्थ वर्ग को इन चारों प्रकार के विनयों से प्रशिक्षित करना चाहिए । आचार्य के प्रति शिष्यादि की विनय प्रतिपत्ति जिस प्रकार पूर्वोक्त विनय आदि के द्वारा शिष्यादि को प्रशिक्षित किये जाने पर गुरु ऋण मुक्त हो जाता है, उसी प्रकार शिष्य भी विधिपूर्वक गुरु की विनय-भक्ति, सेवा-शुश्रूषा आदि करके गुरु ऋण से मुक्त होने का प्रयत्न करता है । अतः प्रसंगवश यहाँ हम उक्त गुणवान् शिष्य ( अन्तेवासी) द्वारा आचार्य की निम्नोक्त शास्त्र प्रतिपादित, चतुविध विनय प्रतिपत्ति का वर्णन करना आवश्यक समझते हैं । (१) उपकरण उत्पादनता विनय - विधिपूर्वक ( आचार्य या संघ के साधुओं के लिए) संयम निर्वाह के लिए आवश्यक उपकरणों को उत्पन्न करना उपकरण उत्पादनता विनय है । इसके भी चार प्रकार हैं - ( १ ) अनुत्पन्न - उपकरणोत्पादन - ( आचार्य परिश्रान्त हो गया हो या उसकी स्वाध्या १ कहीं कहीं 'दोषनिर्घातना विनय' के बदले 'दोष परिघात - विनय' नाम है। इसके ४ प्रकार यों हैं - (१) क्रोधी को क्रोध से होने वाली हानियाँ और क्षमा से होने वाले लाभ बताकर शान्त-स्वभावी बनाना क्रोध परिघात विनय है । ( २ ) विषयासक्ति से उन्मत्त बने हुए को विषयों के दुर्गुण और शील के गुण बताकर निर्विकार बनाना विषयपरिघात विनय है । ( ३ ) रसलोलुप हो, उसे रसलोलुपता से हानियाँ और तप के लाभ बतलाकर तपस्वी बनाना अन्नपरिघात विनय है । ( ४ ) दुर्गुणों से दुःख और सद्गुणों से सुख की प्राप्ति बता - कर दोषी को निर्दोष बनाना आत्मदोष परिघात विनय है । — जैन तत्त्व प्रकाश पृ० १८६ २ तस्सेवं गुणजाइयस्स अंतेवासिस्स इमा चउव्विहा विणयपडिवत्ती भवइ, तं जहाउवगरणउपायणता १, साहिल्लया २, वण्णसं जलणया ३, भारपच्चोरुहणया ४ । — दशांश्रुत० म० ४
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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