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गुरु स्वरूप : १९३ धर्म-प्रचार का क्रम इस प्रकार है— जिन आत्माओं ने धर्म का यथार्थ स्वरूप नहीं समझा, इतना ही नहीं, तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप को तथा सम्यग्दर्शनज्ञान - चारित्ररूप मोक्ष मार्ग को ठीक नहीं पहचाना; उन्हें वीतरागप्ररूपित सत्य धर्म-पथ में लगाना चाहिए । जिन्होंने धर्मपथ सम्यग् रूप से धारण कर लिया हो, उन जीवों को सर्वविरतिरूप धर्म में स्थापित करना चाहिए, अर्थात् उन्हें साधर्मिक बनाना चाहिए । जब कोई व्यक्ति धर्म से पतित हो रहा हो या धर्म छोड़ रहा हो, उस समय उसे सम्यक्तया समझा-बुझाकर धर्म-पथ में स्थिर करना चाहिए, क्योंकि शिक्षित किया हुआ शीघ्र ही धर्म में निश्चलता धारण कर लेता है । परन्तु इस धर्म को हित, सुख, सामर्थ्य एवं मोक्ष के लिए या जन्म-जन्मान्तर में साथ ले चलने के लिए धारण करना चाहिए ।
(४) दोषनिर्घातना - विनय : स्वरूप और प्रकार
आत्मा से दोषों को बाहर निकालना, दोषनिर्घातना-विनय है । इसके मुख्यतः चार प्रकार हैं
(१) क्रुद्ध कोप-निवारण - जिस व्यक्ति को क्रोध करने का विशेष स्वभात्र पड़ गया हो, उसे क्रोध के कटुफल बताकर, मृदु एवं प्रिय भाषण से या जिस किसी भी सात्त्विक उपाय से उसका क्रोध दूर हो सके, दूर करना
चाहिए |
(२) दुष्ट-दोष निग्रह - जो व्यक्ति क्रोधादि कषायों द्वारा दुष्टता को धारण किये हो, या जिसका दुष्टता धारण करने का स्वभाव पड़ गया हो, उसे या उसके स्वभाव को भी शास्त्रीय शिक्षाओं, युक्तियों तथा शान्त भावों से समझा-बुझाकर ठीक करना - उसकी दुष्टता पर नियन्त्रण करना चाहिए ।
(३) कांक्षित-कांक्षाछेदन - इसी प्रकार संयम निर्वाह के लिए जिस को जिस वस्तु की आकांक्षा हो, अर्थात् - अन्न-जल, वस्त्र, पात्र, पुस्तक आदि या विहारादि की संयम विषयक आकांक्षा या अपेक्षा हो, उसकी आकांक्षा
१ दोसनिग्धायणा विणए चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा -
कुद्धस्स को विएत्ता भवइ १, दुट्ठस्स दोस णिगिरिहत्ता भवइ २, कंखियस्स कंखं छिदित्ता भवइ ३, आया सुप्पणिद्धिते यावि भवइ ४, से तं दोसनिग्घायणा विणए ।
— दशाश्रु, तस्कन्ध अ० ४