________________
१७६ : जैन तत्वकलिका — द्वितीय कलिका
(२४) वीर्याचारसम्पन्न - आचार्य को मनोवीर्य, वचनवीर्य और कायवीर्य से सम्पन्न होना चाहिए। मन सदैव शुभ ध्यान, शुभ संकल्प एवं शुभ चिन्तन तथा कुशल विचार से युक्त होना चाहिए । यदि मन रत्नत्रय में संलग्न रहेगा, तो उक्त शुभचिन्तन के फलस्वरूप वचन भी हित, मित, तथ्य और सत्य तथा मधुर ही निकलेगा । जब मन और वचन शुद्ध हो जाते हैं तब कायिक अशुभ व्यापार प्रायः निरुद्ध हो जाता है और काया सम्यक्चारित्र में, शुभ व्यापार में उत्साहपूर्वक प्रवृत्त होगी । इस प्रकार आचार्य के तीनों योग बलपूर्वक शुद्ध आचरण में प्रवृत्त होने चाहिए ।
वीर्य तीन प्रकार का है - पण्डितवीर्य, वालपण्डितवीर्य और बालa' | नाज्ञा के अनुसार जो भी चारित्र- पालन, धर्मक्रियाकलाप किया जाता है, वह पण्डितवीर्य है । सम्यग्दर्शन - ज्ञानयुक्त देशविरति श्रावक ( चारित्राचारित्र) श्रावकधर्म का पालन करता हुआ जितनी संवरमार्ग की क्रियाएँ करता है, उतना पण्डितवीर्य और जितनी क्रियाएँ संसारी दशा की करता है, उतना बालवीर्य होता है । दोनों मिलकर बालपण्डितवीर्य कहलाता है । जितनी भी क्रियाएँ मिथ्यात्व दशा में व्यक्ति करता है, वे सब बालवीर्य की कोटि में हैं । अतएव आचार्य को पण्डितवीर्याचार से युक्त होना चाहिए ताकि संघ की रक्षा और कर्मों की निर्जरा कर सके । पण्डितबलवीर्यसम्पन्न आचार्य ही अनेक भव्य जीवों को संसार सागर से पार करने में समर्थ हो सकता है ।
(२५) आहरणनिपुण - आहरण का अर्थ दृष्टान्त है । न्यायशास्त्र के अनुसार किसी विवादास्पद विषय की व्याख्या करने का प्रसंग आए, उस समय' अन्वय-व्यतिरेक दृष्टान्तों द्वारा उस विषय को स्पष्ट करना आवश्यक होता है ।
आचार्य युक्तिसंगत दृष्टान्तों से उक्त विवादास्पद विषय को स्पष्ट करने में निपुण होना चाहिए । प्रस्तुत विषय को स्पष्ट करने और श्रोताओं के गले उतारने के लिए तदनुरूप दृष्टान्त होना चाहिए। जैसे - किसी ने पाप को दुःखकारक सिद्ध करने के लिए दृष्टान्तपूर्वक वाक्य कहा - "पापं दुःखाय भति ब्रतवत्" (पाप दुःख देने वाला होता है, जैसे कि 'ब्रह्मदत्त' के लिए हुआ था ।)
१ देखें, सूत्रकृतांग, प्रथम श्रुतस्कन्ध, दवां वीर्याध्ययनं ।
२ तत्सत्त्वे तत्सत्त्वमन्वयः, तदभावे तदभावो व्यतिरेकः ।
--तर्कसंग्रह टीका