SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुरु स्वरूप : १७५ (२१) दर्शनाचारसम्पन्न - आचार्य में दर्शनाचारसम्पन्नता होनी अत्यावश्यक है । दर्शनाचारसम्पन्न का अर्थ है वह सम्यक्त्व में पूर्णतया दृढ़ एवं अविचलित हो, देव गुरु-धर्म के प्रति गाढ़ प्रीति-श्रद्धा-प्रतीति हो तथा जीवादि नौ तत्त्वों का यथार्थज्ञानपूर्वक श्रद्धान हो । जिस साधक को जीवादि तत्त्वों का यथार्थ ज्ञान होता है, उसके जीवन शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मिथ्यादष्टिप्रशंसा या मिथ्यादृष्टि का संस्तवअतिसंसर्ग आदि दोष, या संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय दोष, अथवा चल, मल और अगाढ़ दोष नहीं फटकते । यही विशुद्ध सम्यग्दर्शन से सम्पन्न का लक्षण है । जिस अचार्य की सम्यग्दर्शन में दृढ़ता होगी, उसे जिनप्रणीत तत्त्वों में किसी प्रकार की शंका नहीं होगी । यह दर्शनाचारविशुद्धि है । सम्यग्दर्शन होगा, तभी साधक का ज्ञान सम्यग्ज्ञान होगा । वैसे तो प्रत्येक धर्म-सम्प्रदाय वाले अपने-अपने मत पर दृढ़ हैं, परन्तु इससे उन्हें सम्यग्दर्शनी या सम्यक्त्वी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उनका ज्ञान अयथार्थ है । अयथार्थ ज्ञान वाले व्यक्ति का निश्चय भी अतद्रूप अयथार्थ होगा । किन्तु तद्रूप यथार्थज्ञान द्वारा ही यथार्थ निश्चय (सम्यग्दर्शन) में परिणति होती है | अतएव आचार्य में सम्यग्दर्शन- सम्पन्नता का गुण अत्यन्त आवश्यक है, उसके बिना वह शासन की प्रभावना नहीं कर सकता । (२२ चारित्राचारसम्पन्न - आचार्य सामायिक आदि चारित्र का दृढ़तापूर्वक निरतिचाररूप से आचरण करने वाला होना चाहिए । आचार्य शिथिलाचारी या आचारभ्रष्ट नहीं होना चाहिए, अन्यथा वह संघ के साधुसाध्वियों को चारित्र पालन में सुदृढ़ एवं सुस्थिर नहीं कर सकेगा । अतः आचार्य को चारित्राचार के अनुसार बनी हुई समाचारी ( आचारसंहिता) का दृढ़तापूर्वक पालन करना चाहिए । (२३) तपाचारसम्पन्न - आचार्य को पूर्व पृष्ठों में उक्त बारह प्रकार के तपश्चरण में रत रहना चाहिए। तभी वह आत्म-प्रदेशों पर लगे हुए कर्म-परमाणुओं को पृथक् करके आत्मशुद्धि कर सकेगा और संघस्थ साधु-साध्वियों की आत्मशुद्धि तपश्चरण द्वारा करा सकेगा ।' १ पिछले पृष्ठों में ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार इन पाँच आचारों का वर्णन विस्तृतरूप से किया गया है । —सं.
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy