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१७४ : जैन तत्वकलिका-द्वितीय कलिका
और मुह के विकार पर से दूसरे के मनोगत भावों को जाना जा सकता है।' इसलिए आचार्य में भावज्ञता का गुण होना अत्यावश्यक है।
(१८) आसन्नलब्ध प्रतिभ-आचार्य इतना प्रतिभासम्पन्न होना चाहिए कि वादी द्वारा किये गए प्रश्न का शीघ्र ही अत्यन्त योग्यता के साथ युक्तिसंगत समाधान कर सके। इस प्रकार की प्रतिभा से सम्पन्न आचार्य के द्वारा दिये गए समाधान से सैद्धान्तिक ज्ञान प्रश्नकर्ता के हृदय में स्पष्टरूप से अंकित हो जाता है तथा अनेक भव्यात्माओं को अपना कल्याण करने का सुअवसर मिलता है। जैसे-श्री केशीकुमार श्रमण के द्वारा प्रदेशीराजा के आत्मा के विषय में किये गए प्रश्नों के तत्काल युक्तिसंगत समाधान दिये जाने से उसका हृदय-परिवर्तन-नास्तिकता से आस्तिकता में परिवर्तन एवं जीवनपरिवर्तन हो गया, बन्ध और मोक्ष का सम्यक् ज्ञान हो गया, जो प्रदेशीराजा के आत्मकल्याण का कारण बना।
. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में निग्रन्थीपुत्र आदि श्रमणों के प्रश्नोत्तरों को पढ़ने से उनकी 'आसन्नलब्धप्रतिभा' का पता लगता है। अतएव आचार्य में यह गुण अवश्य होना चाहिए, जिससे वह संघरक्षा और तीर्थंकरोक्त सत्य सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार कर सके, साथ ही उसके द्वारा दिये गये समाधान से भव्यजीव अपना कल्याण कर सकें।
(१६) नानाविधदेशभाषाविज्ञ-आचार्य को अनेक देशों की भाषाओं का ज्ञाता होना चाहिए। अनेक देशों की भाषा का जानकार आचार्य उस-उस देश (प्रान्त, जनपद या राष्ट्र) में जाकर वहीं की भाषा में जिनेन्द्रोक्त धर्म एवं सिद्धान्तों का प्रचार भलीभांति कर सकता है, प्रवचन प्रभावना भी कर सकता है।
(२०) ज्ञानाचारसम्पन्न-आचार्य को ज्ञान के आचरण से युक्त अर्थात् मतिश्रुत आदि निर्मल ज्ञानों का धारक होना चाहिए अथवा विभिन्न धर्मों के शास्त्रों और सिद्धान्तों के ज्ञान से सम्पन्न होना चाहिए तभी वह सम्यगज्ञान की आराधना कर या करा सकता है, भव्य साधकों को शास्त्रीय अध्ययन करा सकता है । अतः आचाय में ज्ञानसम्पन्नता अतीव आवश्यक है।
१ आकारैरिंगितर्गत्या चेष्टया भाषणेन च । ____ नेत्रवक्त्रविकारैश्च लक्ष्यतेऽन्तर्गतं मनः ॥ २ राजप्रश्नीय सूत्र में देखें-प्रदेशी राजा का अधिकार । ३ देखें भगवती सूत्र में निम्रन्थीपत्र श्रमण का अधिकार ।