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९७२ : जन तत्त्वकलिका -- द्वितीय कलिका
और आत्मचिन्तन कर सकता है । जो अतिनिद्राशील या अमर्यादित निद्रा वाला होता है, अथवा आलस्यमग्न रहता है, वह अपूर्वं ज्ञान के ग्रहण करने सेतो वंचित रहता ही है; पूर्व-अर्जित ज्ञान को भी विस्मृत हो जाता है । ऐसा प्रमादी साधक अपने शरीर की भी रक्षा नहीं कर सकता तो ज्ञान की रक्षा क्या करेगा ? जो अर्जित ज्ञान की सुरक्षा नहीं कर सकता, वह आचार्य गच्छ की रक्षा कैसे कर सकेगा ?
तात्पर्य यह है कि आचार्य को निद्राजयी होना चाहिए, ताकि संघ ज्ञानवृद्धि कर सके, आत्मज्ञान का सर्वांगीण विकास कर सके ।
(१४) मध्यस्थ - आचार्य को राग-द्व ेष, अथवा मोह-पक्षपात आदि से दूर रहकर मध्यस्थ रहना चाहिए । अगर आचार्य ही राग-द्व ेष या पक्षपात या मोह में ग्रस्त हो गया तो संघ में साधु-साध्वियों के प्रति अन्याय कर बैठेगा ।
इसी प्रकार कोई व्यक्ति पापी, द्रोही अन्यायी-अत्याचारी हो, हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार आदि में ग्रस्त हो, नास्तिक हो, कहने - समझाने पर भी न मानता हो, बल्कि प्रतिकूल आचरण करता हो, ऐसे व्यक्ति के प्रति भी आचार्य को माध्यस्थ्य भाव रखना आवश्यक है । "
इसी प्रकार प्रत्येक प्रतिकूल परिस्थिति, स्थान, संयोग-वियोग में भी माध्यस्थ्य – समत्वभाव रखना आवश्यक है ।
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आचार्य में माध्यस्थ्य गुण उसके आध्यात्मिक विकास एवं आत्मसमाधि का परिचायक है । माध्यस्थ्यभाव धारण करने से और भी अनेकों लाभ हैं । (१५) देशज्ञ - आचार्य को विविध देशों (राष्ट्रों, राज्यों एवं प्रान्तोंजनपदों) के गुण, कर्म, स्वभाव, संस्कृति, भाषा, जलवायु, जनमानस आदि का ज्ञाता होना चाहिए | युग की भाषा में कहूँ तो, आचार्य को विविध देशों के भूगोल, इतिहास एवं संस्कृति एवं उन देशों में प्रचलित धर्म आदि का ज्ञान होना चाहिए । देश - देश का ज्ञान होने पर ही आचार्य उस उस देश में स्वयं अथवा उसके संघ के साधु-साध्वीगण विहार, धर्मप्रचार, उपदेश, व्यसन-त्याग की प्रेरणा आदि भलीभांति कर सकते हैं; उस देश में रहकर अपने संयम और साधुधर्म का पालन सम्यक् प्रकार से कर सकते हैं । देशज्ञ आचार्य अपने एवं धर्म से कदापि स्खलित नहीं होता ।
(१६) कालज्ञ - आचार्य को काल का परिज्ञाता होना भी अतीव
- सामायिक पाठ, श्लो० १
१ 'माध्यस्थ्य भावं विपरीत वृत्तौ ......