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गुरु स्वरूप : १७१ श्रुतज्ञान स्थिरपरिपाटी से ग्रहण किया जाता है, वह इह लोक-परलोक में कल्याणकारक होता है ।
आचार्य को चरणकरणानुयोग के सिद्धान्त अविकलरूप से कण्ठस्थ होने चाहिए, ताकि इनके आधार से वह गच्छ में सारणा, वारणा, धारणा आदि प्रवृत्तियाँ सुचारु रूप से कर सके। इसी तरह क्रियाविशुद्धि या व्यवहार शुद्धि के लिए आचार्य को बृहत्कल्पसूत्र, व्यवहारसूत्र, निशीथसूत्र और दशा स्कन्ध इत्यादि शास्त्रों का अध्ययन मनन एवं स्मरण भी अस्खलित भाव से होना चाहिए । इसीलिए आचार्य में स्थिरपरिपाटी का गुण होना आवश्यक बताया है ।
(११) गृहीतवाक्य - जिसके मुख से निकले हुए वचन उपादेय हों, वह aartaa है । आचार्य के मुख से राग, द्वेष, मोह एवं पक्षपात से रहित तथा भव्य जीवों के लिए पथ्य-तथ्य सत्य वचन निकलने चाहिए, जो अक्षरशः मान्य हों, शिरोधार्य हों, और उपादेय हों । अतएव आचार्य को गृहीतवाक्य होना चाहिए ।
(१२) जितपरिषत् - आचार्य सभा को जीतने वाला होना चाहिए । धर्मपरिषद् में सभी प्रकार के श्रोता आते हैं; कोई तार्किक, कोई विद्वान्, कोई वैज्ञानिक, कोई तस्वज्ञ, कोई शास्त्रमर्मज्ञ, कोई सरलबुद्धि, कोई कथारसिक, कोई संगीतरसिक तो कोई कोमलमति बालक । अगर आचार्य युक्तिसंगत, शास्त्रसम्मत बात सरल- ललित बोधगम्य भाषा में नहीं कहकर अयुक्तिक, अशास्त्रीय बात कठिन भाषा में कहेंगे तो वे सभा पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकेंगे । जो आचार्य बहुश्रुत, समयज्ञ, शान्तचित्त, न्यायपक्षी, कुशलवक्ता होगा, वही 'जितपरिषद्' हो सकता है ।
ऐसे महान आचार्य अक्षुब्धचित्त होकर जब परिषद् में बैठेंगे, तब प्रत्येक विषय में नई-नई स्फुरणा प्रेरणा और गवेषणा करके शान्तचित्त से ऊहापोहयुक्त भाषण, सम्भाषण एवं परिसंवाद कर सकेंगे और परिषद् को बरबस आकर्षित कर सकेंगे, सभा को प्रभावित कर सकेंगे ।
(१३) जितनिद्र -- आचार्य निद्राविजयी हो । निद्राविजयी का यह अर्थ नहीं कि आचार्य नींद ही न ले, किन्तु योगी की तरह उनका सोनाजागना युक्त-- मर्यादित हो ।' निद्राविजयी ही अधिक स्वाध्याय, ज्ञान-ध्यान,
१ 'युक्त स्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा । - भगवद्गीता अ० ६ श्लो० १७