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गुरु स्वरूप : १६६
धैर्यगुण से सम्पन्न आचार्य संघ या गच्छ का भार भलीभांति वहन कर सकेंगे, संघ में कठोर प्रकृति वाले साधुओं को भी वे निभा सकेंगे।
इसके अतिरिक्त गच्छाधिपति आचार्य को न्याय करते समय स्वपक्षपरपक्ष अथवा प्रतिपक्षी लोगों के तीखे शब्द भी सुनने पड़ते हैं। उस समय आचार्य धैर्यगुण वाले होंगे तो वे उन शब्दों को समभावपूर्वक सहन करके न्याय-मार्ग से विचलित नहीं होंगे।
यदि आचार्य में धैर्यगुण नहीं होगा तो वे संघ-संचालन ठीक तरह से नहीं कर सकेंगे, वे शीघ्र ही उत्तेजित होकर प्रतिपक्षी को अपना शत्र बना लेंगे। अधीर और तुनकमिजाज व्यक्ति किसी भी कार्य में सफलता नहीं प्राप्त कर सकता । आध्यात्मिक विकास के लिए भी आचार्य में धृतिसम्पन्नता होनी चाहिए।
(७) अनाशंसी-जो सरस, स्वादिष्ट एवं मनोज्ञ आहार-पेय आदि की आशंसा (आकांक्षा या आशा) न करता हो, वह अनाशंसी होता है। जिस साधक में किसी धनिक या शासक से किसी मनोज्ञ वस्तु के पाने की आकांक्षा, अपेक्षा या आशा होती है, अथवा अधिक लोभसंज्ञा या लोलुपता होती है, उसमें तप-संयम की मात्रा कम हो जाती है, परिणामतः मोक्षमार्ग में विघ्न उपस्थित हो जाता है। और फिर जब आचार्य स्वयं लोभ-ग्रस्त हो जाएगा तो वह अपने संघ के साधु-साध्वियों को तप, संयम के विशुद्ध मार्ग पर कैसे ला सकेगा ?
जो आचार्य अनाशंसा गुण से अभ्यस्त होगा, वही दूसरे साधकों को इस गुण से अभ्यस्त एवं प्रशिक्षित कर सकेगा । अतएव आचार्य का अनाशंसी होना अत्यावश्यक है।
(८) अविकत्थन–स्वल्पतर अपराध का पुनः पुनः उच्चारण करना 'विकत्थन' है; उसकी पुनः पुनः रट न लगाना, अपितु अपराध की विशुद्धि का प्रयत्न करना ‘अविकत्थन' कहलाता है । आचार्य में 'अविकत्थन' गुण अवश्य होना चाहिए।
___ दण्डनीति का एक नियम है- 'यथादोषं दण्डप्रणयनम्' (जैसा दोषअपराध हो, उसी के अनुसार दण्ड प्रदान करना) । आचार्य को दोषी साधक के दोष की पूरी तरह छानबीन करके तदनुसार शास्त्रोक्त दण्ड-प्रायश्चित्त देना चाहिए, यही न्यायशीलता है।
यदि पक्षपातवश न्यूनाधिक दण्ड-प्रायश्चित्त दिया जाएगा, अथवा एक बार जिस अपराध-दोष के लिए दण्ड दे दिया गया है, उस अपराध या