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________________ १६८ : जैन तत्वकलिका--द्वितीय कलिका हैं। अथवा इसे कुलार्य भी कह सकते हैं। कुलार्य का अर्थ है जिसका कुल-वंश परम्परा के शुद्ध चला आ रहा हो । जिस प्रकार आचार्य का देशार्य होना आवश्यक है, उसी प्रकार कुलार्य (आर्य कुलोत्पन्न) होना भी अत्यावश्यक है । क्योंकि आर्य कुलों में धर्म संस्कार, विनय, धर्मश्रद्धा, एवं अभक्ष्य पदार्थों का त्याग, आदि गुण स्वाभाविक ही होते हैं। (३) जातिसम्पन्न-जिसका जाति (मात) पक्ष निर्मल हो उसे शुद्ध जातिसम्पन्न कहते हैं। जिस प्रकार शुद्ध भूमि के बिना बीज भी पुष्पित-फलित नहीं हो सकता; उसी प्रकार शुद्ध जाति के बिना भी प्रायः उच्चकोटि के सद्गुणों की प्राप्ति कठिन होती है; शुद्ध जाति में प्रायः लज्जा, विनम्रता, पापभीरुता आदि गुण स्वाभाविक होते हैं तथा शुद्धजातिसम्पन्न व्यक्ति में अनेक दुगुण स्वतः नहीं होते गुणों की प्राप्ति अनायास ही हो जाती है । अतः आचार्य का जातिसम्पन्न होना आवश्यक है । (४) रूपसम्पन्न-'यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्ति' इस लोकोक्ति के अनुसार जिसकी शरीराकृति ठीक होती हैं, उसमें प्रायः कई सद्गुण भी होते हैं। सुसंस्थानयुक्त एवं आकृतिसम्पन्न पुरुष महाप्रभावक हो सकता है। शरीरसम्पत्ति दूसरों के मन को प्रफुल्लित कर देती है जैसे- केशीकुमार श्रमण के रूप को देखकर प्रदेशी राजा और अनाथीमुनि के रूप को देखकर मगधसम्राट श्रेणिक आश्चर्यमग्न हो गए और उनके मुख से धर्म से ओतप्रोत वचन सुन कर धर्मपथ पर आ गए थे। - इसीलिए आचार्य महाराज का शरीर सुडौल, सुन्दर और तेजस्वी होना चाहिए, जिससे वे विरोधी से विरोधी व्यक्ति पर भी प्रभाव डाल सके और उसे धर्मपथ पर ला सकें। (५) बलसम्पन्न-आचार्य महाराज का शरीर-संहनन भी काल के अनुसार उत्तम होना आवश्यक है । कहावत है- 'बलवति शरीरे बलवानात्मा निवसति'--बलवान् शरीर में ही बलवान् आत्मा निवास करता है। जिसका शरीर-सामर्थ्य ठीक नहीं होगा, वह अध्ययन-अध्यापन, तप, संयम आदि की क्रियाएँ भलीभाँति नहीं कर सकेगा, न ही वहांशीत-उष्णादि परीषह समभावपूर्वक सहन कर सकेगा। अतः आचार्य में इस अर्हता का होना अत्यन्त आवश्यक है। (६) धृतिसम्पन्न-आचार्य में धैर्यगुण का होना नितान्त आवश्यक है।
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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