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१६४ : जैन तत्त्वकलिका-द्वितीय कलिका
- (४) मनोविनय-अशुभ (अप्रशस्त), कर्कश, कठोर, छेदक, भेदक, परितापकर विचारों से मन को हटाकर प्रशस्त, कोमल, दयायुक्त, वैराग्यमय विचार करना मनोविनय है।
(५) वचनविनय-कर्कश, कठोर, छेदक,, भेदक, परितापकर और अप्रशस्त वचनों का उच्चारण करने से जिह्वा को रोककर प्रशस्त वचनों का उच्चारण करना वचनविनय है।
(६) कायविनय-गमनागमन करते, सोते, बैठते-उठते, उल्लंघनप्रलंघन करते समय समस्त इन्द्रियों को अप्रशस्त प्रवत्तियों से रोककर प्रशस्त प्रवृत्ति (कार्य) में प्रवत्त करना कायविनय कहलाता है।
___ (७) लोक-व्यवहारविनय-इसके ७ भेद हैं- (१-२) गुरु और गुणाधिक सार्मिकों की आज्ञा में चलना, (३) स्वधर्मी का कार्य करना, (४) उपकारी . के प्रति कृतज्ञ होना, (५) दूसरों की चिन्ता दूर करने का उपाय करना, (६) देश-कालानुरूप प्रवत्ति करना, (७) कुशलता एवं निष्कपटता के साथ सर्वजनप्रिय व्यवहार करना।' (e) वैयावृत्य-तप
- इसके दस प्रकार हैं-(१) आचार्य, (२) उपाध्याय, (३) शैक्ष (नवदीक्षित), (४) ग्लान, (५) तपस्वी, (६) स्थविर, (७) स्वधर्मी, (८) कुल (गुरुभ्रातावन्द), (९) गण (एक सम्प्रदाय का साध समूह) और (१०) संघ का वयावृत्य करना अर्थात्-इन सबको आहार, वस्त्र, पात्र, औषधोपचार आदि आवश्यक वस्तु देना-दिलाना, इनको ज्ञानादि विद्धि में सहयोग देना, पैर दबाना आदि रूप में यथायोग्य सेवा-शुश्र षा करना वैयावत्य तप है। (१०) स्वाध्याय तप
शास्त्रों, आध्यात्मिक ग्रन्थों तथा तत्त्वज्ञानविषयक पुस्तकों का अध्ययन-मनन करना स्वाध्याय है।।
स्वाध्याय-तप के ५ भेद हैं-(१) वाचना, (२) पृच्छा, (३) परिवर्तना (पुनरावृत्ति करना), (४) अनुप्रेक्षा - (अर्थचिन्तन, अर्थ-परमार्थ में उपयोग लगाना), और धर्मकथा (उपदेश देना)।
___ स्वाध्याय-तप से आत्मोन्नति, आत्मभाव-विशुद्धि, आत्मकल्याण के साथ जिनोक्त धर्मसंघ का अभ्युदय, सुन्दर मार्गदर्शन द्वारा संघ की उन्नति आदि महोपकार होता है।
१ तत्त्वार्थ सूत्र में चार प्रकार का विनय बताया है-'ज्ञान-दर्शन-चारित्रोपचाराः'
-तत्वार्य० म०९, सूत्र २३