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________________ गुरु स्वरूप : १६३ कर जघन्य ६ मास, उत्कृष्ट १२ वर्ष तक सम्प्रदाय से बाहर रखकर अनवस्थित प्रायश्चित्त में कहे अनुसार घोर तप करवाकर ग्राम-ग्राम घुमाकर फिर नई दीक्षा देना पाराञ्चित्त प्रायश्चित कहलाता है।' (८) विनय तप गुरु आदि पर्यायज्येष्ठ मुनियों का, वयोवृद्धों, गुणवृद्धों तथा ज्ञानियों का एवं ज्ञान-दर्शन-चारित्र का यथोचित श्रद्धापूर्वक सत्कार-सम्मान करना विनयतप कहलाता है। इसके ७ भेद हैं—(१) ज्ञान-विनय, (२) दर्शनविनय, (३) चारित्रविनय, (४) मनोविनय, (५) वचनविनय, (६) कायविनय और (७) लोकव्यवहार विनय । इनके भेद-प्रभेदों का विश्लेषण इस प्रकार है (१) ज्ञानविनय के पाँच भेद- (१) औत्पातिकी आदि निर्मल बुद्धिरूप मतिज्ञानधारक का विनय करना, (२) निर्मल उपयोग वाले शास्त्रज्ञ यानी श्रु तज्ञानी का विनय करना. (३) मर्यादापूर्वक इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना रूपी पदार्थों के ज्ञाता-अवधिज्ञानी का विनय करना, (४) ढाई द्वीप में स्थित संज्ञी जीवों के मनोगत भावों के ज्ञाता मनःपर्यायज्ञानी का विनय करना और (५) सम्पूर्ण द्रव्य-क्षत्र-काल-भाव के ज्ञाता केवलज्ञानी का विनय करना। यह ५ प्रकार का ज्ञानविनय है। (२) दर्शनविनय के दो भेद- (१) शुश्रूषाविनय-शुद्ध सम्यग्दृष्टि (श्रद्धावान्) के आने पर खड़े होकर सत्कार करना, आसन के लिए आमंत्रण करना, ऊँचे स्थान पर बिठाना, यथोचित वन्दना करके गुणकीत न करना, अपने पास जो उत्तम वस्तु हो, उसे समर्पित करना, यथाशक्ति यथोचित सेवाभक्ति करना शुश्र षाविनय है। (२) अनाशातनाविनय-अरिहन्त, अरिहन्तप्रणीत धर्म, पंचाचारपालक आचार्य, शास्त्रज्ञ उपाध्याय, विविध स्थविर, कुल (एक गुरु का शिष्य समूह), गण (सम्प्रदाय के साध), साधुसाध्वो श्रावक-श्राविकारूप चतुर्विध संघ, शास्त्रोक्त शुद्ध क्रियापालक, संभोगी, मत्यादि पंचज्ञान से युक्त ज्ञानीपुरुष; इन सब (पन्द्रह) की आशातनाओं का त्याग करना, इनको श्रद्धापूर्वक भक्ति, गुणानुवाद करना। ___ (३) चारित्रविनय के पाँच भेद-सामायिक, छेदोपस्थापनिक, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म-सम्पराप और यथाख्यात-यह पाँच प्रकार का चारित्र है। इन पाँच प्रकार के चारित्र वालों का विनय करना चारित्रविनय है। १. अन्तिम दोनों प्रायश्चित्त इस काल में नहीं दिये जाते।
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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