SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ .१.६२ : जैन तत्त्वकलिका- द्वितीय कलिका पाप दस प्रकार से लगते हैं- (१) कन्दर्प (काम) के वश होने से, (२) प्रमाद के वश, (३) अज्ञानवश, (४) क्षधावश, (५) विपत्ति के कारण, (६) शंका के कारण (७) उन्माद (पागलपन या भूताविष्ट होने) से, (८) भय से, (६) द्वष से तथा (१०) परीक्षा करने की भावना से। प्रायश्चित्त के दस भेद (१) आलोचनाह-आचार-व्यवहार में कोई अतिक्रम व्यतिक्रम हुआ हो, उस दोष का यथाक्रम से गुरु या ज्येष्ठ साधु के समक्ष निवेदन कर देने से अनजान में लगे दोषों की शुद्धि हो जाती है। (२) प्रतिक्रमणाह-आहार, विहार, प्रतिलेखन आदि में अनजान से जो दोष लगा हो, उसकी शुद्धि प्रतिक्रमण से हो जाती है । (३) तदुभयाह-द्वितीय प्रायश्चित्त में कहे हुए कार्य करते समय यदि जानबूझकर दोष लगा हो तो उसे गुरु आदि के सम्मुख निवेदन करके 'मिच्छामि दक्कडं' (मेरा दुष्कृत निष्फल हो) देने से शुद्धि हो जाती है। .. (४) विवेकाह-अशुद्ध, अकल्पनीय तथा तीन पहर से अधिक रहा हुआ आहार परठ देने से दोषशुद्धि हो जाती है, वह विवेक प्रायश्चित्त है। (५) व्युत्सर्गाई-दुःस्वप्न आदि से होने वाला पाप कायोत्सर्ग करने से दूर हो जाता है। (६) तपसाह-पृथ्वीकाय आदि सचित्त के स्पर्श हो जाने के पाप से निवृत्त होने के लिए आयम्बिल, उपवास आदि करना तपसाह प्रायश्चित्त है। (७) छेदाह-अपवादमार्ग का सेवन करने से तथा कारणवश जानबूझकर दोष लगाने पर पाले हुए संयम (दीक्षा पर्याय) में से कुछ दिनों या महीनों को कम कर देना छेद प्रायश्चित्त है। (८) मूलाह-जानबूझकर हिंसा करने, असत्य भाषण करने, चोरी करने, मैथुन-सेवन करने तथा सोना-रत्न आदि परिग्रह रखने, अथवा रात्रिभोजन करने पर नई दीक्षा लेना मूलाई प्रायश्चित्त है। (९) अनवस्थित-करतापूर्वक अपने या दूसरे के शरीर पर लाठी, मुक्का आदि का प्रहार करने पर या गर्भपात करने पर, ऐसा करने वाले साधु को सम्प्रदाय से अलग रखकर ऐसा घोर तप कराया जाए कि वह उठ-बैठ भी न सके, फिर उसे नई दीक्षा देना अनवस्थित प्रायश्चित्त है। (१०) पाराञ्चित-जो साधु शास्त्र के वचनों की उत्थापना करे, शास्त्रविरुद्ध प्ररूपणा करे, साध्वी का शीलवत भंग करे, उसका वेष परिवर्तित करा
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy