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(६) प्रतिसंलीनता - तप
इन्द्रिय, शरीर, मन और वचन से विकारों को उत्पन्न न होने देकर उन्हें आत्मा - आत्मस्वरूप में संलीन करना अथवा कमस्त्रव के कारणों का निरोध करना प्रतिसंलीनता है
गुरु स्वरूप : १६१
इसके चार प्रकार हैं
(१) इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता -राग-द्वेष पैदा करने वाले शब्दों के सुनने से कानों को रोकना, रूप देखने से आँखों को रोकना, गन्ध से नाक को, रस से जिह्वा को और स्पर्श से शरीर के अंगोपांगों को रोकना; और कदाचित् इन शब्दादि विषयों की प्राप्ति हो तो मन में विकार उत्पन्न न होने देना, समभाव - संतुलन रखना ।
(२) कषाय- प्रतिसंलीनता - क्षमा से क्रोध का, विनय से मान का, सरलता से माया का और संतोष से लोभ का निग्रह करना ।
(३) योग - प्रतिसंलीनता - असत्य और मिश्र मन-वचन का त्याग करके सत्य मन-वचन योगों तथा व्यवहार मन-वचन योगों का यथोचित प्रयोग तथा औदारिक, औदारिक मिश्र, वैक्रिययोग, वैक्रियमिश्रयोग, आहारकयोग, आहारकमिश्रयोग और कार्मणयोग; इन सातों काययोगों को अशुभ से निवृत्त करके शुभ में प्रवृत्त करना योगप्रति संलीनता है ।
करना
(४) विविक्त शय्यासन - प्रतिसंलीनता - वाटिका में, बगीचे में, उद्यान में, यक्ष आदि के देवस्थान में, पानी पिलाने की प्याऊ में, धर्मशाला में, लोहार • आदि की हाट में वणिक् की दूकान में, श्रेष्ठी की हवेली में, धान्य के खाली कोठार में, सभास्थान में, पर्वत की गुफा में, राजसभा में, छतरियों में, श्मशान में और वृक्ष के नीचे आदि इन अठारह प्रकार के स्थानों में जहां स्त्री-पशु-पण्डक के निवास से रहित स्थान हो, वहाँ कम से कम एक रात्रि और अधिक से अधिक यथोचित काल तक रहना ।
छह प्रकार के आभ्यन्तर तप की व्याख्या इस प्रकार है
(७) प्रायश्चित्त - तप
पापों की विशुद्धि अथवा पापयुक्त पर्याय का छेदन करना प्रायश्चित्त है ।
१ (क) प्रायः पापं विजानीयात् चित्तं तस्य विशोधनम् ।
(ख) प्रायः पापपर्याय छिनत्ति इति प्रायश्चित्तम् ।