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________________ १६० : जैन तत्त्वकलिका-द्वितीय कलिका (२) प्रणीतरसपरित्याग–धार से विगइ (घी, तेल, दूध आदि विकृति) न लेना, या ऊपर से विगइ न लेना। .. (३) आचामसिक्थभोग तप-ओसामण में निकले अनाज के सीझे हुए दाने खाना। (४) अरस आहार-सरस और मसालेदार आहार न करना। (५) विरस आहार–पुराना पका (सीझा) हुआ धान लेना । (६) अन्त-आहार-मटर, भीगे चने, गेहूँ की गूगरी या उड़द के बाकले लेना। (७) प्रान्त आहार-ठंडा-बासी आहार (जो रसचलित न हुआ हो) . लेना । (८) रूक्ष-आहार-रूखा-सूखा आहार लेना । .. (६) तुच्छ आहार-जली हुई खुरचन आदि लेना। (१० से १४ तक) अरस, विरस, अन्त, प्रान्त एवं रूक्ष आहार का सेवन करना। इस प्रकार रूखा-सूखा आदि आहार लेकर संयम का निर्वाह करना रस-परित्याग तप है। (५) कायक्लेश '... धर्म की आराधना के लिए स्वेच्छापूर्वक काया को कष्ट देना कायक्लेश तप कहलाता है। इस तप के अनेक प्रकार हैं। यथा-ठाणाठितिय-कायोत्सर्ग करके खड़ा रहना; ठाणाइय कायोत्सर्ग किये बिना खड़ा रहना; उक्कड़ासणिएदोनों घुटनों के बीच में सिर झुकाकर कायोत्सर्ग करना; पडिमाठाइए-साधु को बारह प्रतिमाओं (पडिमाओं') को धारण करना। इसके अतिरिक्त केशलोच करना, ग्रामानुग्राम विचरण करना, सर्दीगर्मी सहन करना, खुजली आने पर खुजलाना नहीं, रुग्ण साधु की वैयावत्य के लिए रात्रि जागरण करना, भूख-प्यास का कष्ट सहना आदि सब कायक्लेश तप के अन्तर्गत हैं। १ बारह भिक्षुप्रतिमाओं का वर्णन देखिये 'श्रमणसूत्र' नव-संस्करण पृ०९२६६ । -दशा तस्कन्ध, आवश्यक हरिभद्रीय टीका
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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