________________
गुरु स्वरूप : १५६
(३) भिक्षाचरी - तप
बहुत घरों से थोड़ी-थोड़ी सामुदानिक (सामूहिक) भिक्षा लाकर अपने शरीर का निर्वाह करना, संयमयात्रा चलाना भिक्षाचरी तप है । जैसे- गाय जंगल में जाकर जड़ से न उखाड़कर ऊपर-ऊपर का थोड़ा-थोड़ा घास चर कर अपना निर्वाह करती है, वैसे ही भिक्षु अपने नियमानुसार एक ही घर से सारा आहार न लेकर अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा आहार लेकर अपना जीवन निर्वाह करते हैं । इसीलिए साधु की भिक्षा को ' गोचरी' भी कहते हैं ।
जैसे भौंरा बगीचे में लगे हुए अनेक फूलों से थोड़ा-थोड़ा रस लेकर अपनी तृप्ति कर लेता है । इससे फूलों को तनिक भी कष्ट नहीं पहुँचता, इसी प्रकार साधु भी, गृहस्थों के द्वारा उनके अपने निमित्त से बनाये हुए आहार में से थोड़ा-थोड़ा लेकर अपनी तृप्ति कर लेता है, इससे गृहस्थों को भी किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती । इसीलिए इसे माधुकरी' भी कहते हैं । भिक्षाचर्या के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से चार प्रकार हैं । द्रव्य से भिक्षाचर्या के २६ अभिग्रह होते हैं, क्षेत्र से ८ अभिग्रह, काल से अनेक प्रकार अभिग्रह और भाव से भी अनेक प्रकार के अभिग्रह (संकल्प) होते हैं ।
गृहस्थों के लिए भिक्षाचरी तप के बदले 'वृत्तिपरिसंख्यान तप' बताया गया है । वृत्तिपरिसंख्यान का अर्थ है - आवश्यक आहार्य द्रव्यों की परिसंख्या – गिनती रखना, इससे विविध खाद्य वस्तुओं या अन्य आवश्यक वस्तुओं की लालसा कम हो जाती है। श्रावक के दैनिक चिन्तनीय १४ नियम इसी के ही संकेत हैं। सातवें उपभोग परिभोग - परिमाणव्रत में भी २६ बोलों की मर्यादा की जाती है, लेकिन वह यावज्जीवन के लिए है । (४) रस- परित्याग
I
जीभ को स्वादिष्ट लगने वाली तथा इन्द्रियों को प्रबल एवं उत्त ेजित करने वाली वस्तुओं का त्याग करना रस- परित्याग तप है । तात्पर्य यह हैस्वादवृत्ति को जीतना इस तप का उद्देश्य है ।
इस तप के १४ प्रकार हैं
(१) निविकृतिक (निविगs) तप - दूध, दही, घी, तेल और मिठाई इन पांचों विकृतिवद्ध के पदार्थों (विगइयों) का त्याग करना ।
१ वयं च वित्तिं लब्भामो ण य कोइ उवहम्मइ । अहागडेसु रीयंते, पुफ्फेसु भमरो जहा ||
- दशवे. अ० १ गा० ४
--