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१५८ : जैन तत्त्वकलिका-द्वितीय कलिका
इत्वरिक अनशन तप छह प्रकार का है-(१) श्रेणीतप, (२) प्रतर. तप, (३) घनतप, (४) वर्गतप, (५) वर्गावर्गतप और (६) प्रकीर्णकतप ।
. श्रेणीतप-चतुर्थभक्त (उपवास), षष्ठभक्त (बेला), अष्टमभक्त (तेला), चोला, पंचौला, यों क्रमशः बढ़ते-बढ़ते पक्षोपवास, मासोपवास (मासखमण), दो मास, तीन मास यावत् षट्मासोपवास करना श्रेणी तप कहलाता है।
प्रतरतप-क्रमशः १, २, ३, ४, २, ३, ४, १, ३, ४, १, २, ४, १, २, ३; इत्यादि अंकों के क्रमानुसार तप करना प्रतरतप है।
घनतप-८४८=६४ कोष्ठक में आने वाले अंकों के अनुसार तप करना घनतप है।
वर्गतप–६४४६४=४०६६ कोष्ठकों में आने वाले अंकों के अनुसार तप करना वर्गतप है।
वर्गावर्गतप-४०६६४४०६६=१६७७७२१६ कोष्ठकों में आने वाले अंकों के अनुसार तप करना वर्गावर्गतप है।
प्रकीर्णकतप-कनकावली, रत्नावली, मुक्तावली, एकावली, बृहत्सिंह- . क्रीड़ित, लघुसिंह-क्रीड़ित, गुणरत्नसंवत्सर, वज्रमध्य प्रतिमा, यवमध्य प्रतिमा, सर्वतोभद्र प्रतिमा, महाभद्र प्रतिमा, भद्रप्रतिमा, आयम्बिल वर्धमान इत्यादि तप प्रकीर्णक तप कहलाते हैं।
यात्वकथिक तप-मारणान्तिक उपसर्ग आने पर, असाध्य रोग हो जाने पर या बहुत अधिक जराजीर्ण अवस्था हो जाने पर जब आयु का अन्त निकट प्रतीत हो, तब जीवन-पर्यन्त के लिए अनशन करना यावत्कथिक तप है। इसके मुख्य दो भेद हैं-भक्त प्रत्याख्यान और पादोपगमन । इन दोनों 'तपों को जैन भाषा में 'संथारा करना' भी कहते हैं। (२) ऊनोदरी (अवमौदर्य) तप
आहार, उपधि और कषाय को न्यून (कम) करना ऊनोदरी तप है। ऊनोदरी दो प्रकार की है-द्रव्य-ऊनोदरी और भाव-ऊनोदरी।
. वस्त्र, पात्र आदि कम रखना तथा आहार कम करना, द्रव्य-ऊनोदरी है और क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वष, चपलता आदि दोषों को कम करना भाव-ऊनोदरी है।
द्रव्य-भाव ऊनोदरी से प्रमाद कम हो जाता है, तन और मन स्वस्थ होता है, बुद्धि, स्मृति, धृति, सहिष्णुता आदि बढ़ती है।