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गुरु स्वरूप : १५७
उत्कृष्ट साधन है। विधिपूर्वक तपस्या से कर्मों की निर्जरा (एकदेश से क्षय) होती है। जिस प्रकार मिट्टी आदि मिला हुआ सोना अग्नि में तपाने से शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार तपश्चर्यारूपी अग्नि में तपकर कर्ममल से मलिन आत्मा शुद्ध हो जाता है, वह अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। तप के बारह आचार
___ उत्तराध्ययन सूत्र में तप के भेद-प्रभेदों का वर्णन इस प्रकार किया गया है।
मुख्य रूप से तप दो प्रकार का है-बाह्य और आभ्यन्तर ।
बाह्य तप छह प्रकार का है—(१) अनशन, (२) ऊनोदरी (अवमौदर्य), (३) भिक्षाचरी (या वृत्तिपरिसंख्यान), (४) रस परित्याग, (५) कायक्लेश और (६) प्रतिसंलीनता (या विविक्तशयनासन)।'
- आभ्यन्तर तप भी छह प्रकार का है—(१) प्रायश्चित्त, (२) विनय, (३) वैयावत्य, (४) स्वाध्याय, (५) ध्यान और (६) व्युत्सर्ग (अथवा कायोत्सर्ग)।
- बाह्य-तप की अपेक्षा आभ्यन्तर तप से कर्मों की अधिक निर्जरा होती है। बाह्य तप प्रायः प्रत्यक्ष होते हैं और आभ्यन्तर तप प्रायः गुप्त या परोक्ष होते हैं।
छह प्रकार के बाह्य तप की व्याख्या इस प्रकार है(१) अनशन तप
अशन (अन्न), पान (जलादि पेय वस्तु), खाद्य (पक्वान्न, मेवा, मिष्टान्न आदि) और स्वाद्य (मुख को सुवासित करने वाले इलायची, सुपारी आदि) चारों प्रकार के पदार्थ 'अशन' शब्द से गृहीत होते हैं। ये चारों प्रकार के या 'पान' को छोड़कर तीनों प्रकार के आहार का त्याग करना 'अनशन' तप कहलाता है।
अनशन तप मुख्यतया दो प्रकार का है-इत्वरिक (काल की मर्यादायुक्त अनशन) और यावत्कथिक (जीवनपर्यन्त किया जाना वाला अनशन ।)
१ (क) अनशनावमौदर्य-वृत्तिपरिसंख्यान-रसपरित्याग-विविक्तशयनासन कायक्लेशा बाह्य तपः ।
-तत्त्वार्थसूत्र अ०६ सूत्र १६ (ख) उत्तराध्यनसूत्र अ० ३० गा० ७ से ३६ तक