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________________ १५६ : जैन तत्त्वकलिका-द्वितीय कलिका होता है-द्रव्य से-दस बोल वर्जित करके परिठावे, अर्थात्-विषम, दग्ध, बिल, गड्ढा अप्रकाशित आदि स्थानों में न परिठावे । क्षेत्र से–परिष्ठापन स्थान के स्वामी की या स्वामी न हो तो शकेन्द्रमहाराज की आज्ञा लेकर उक्त वस्तुओं को परठे। काल से–दिन में जगह को भलीभाँति देखकर तथा रात्रि को पूज कर परठे । भाव से-शुद्ध उपयोग सहित परठे। परठने जाते समय 'आवस्सहि-आवस्सहि' कहे, परठने के बाद तीन बार 'वोसिरे-वोसिरे' कहे । स्थान पर आकर ईरियावाहिया का प्रतिक्रमण करे।। तीन गुप्तियाँ (१) मनोगुप्ति-मन को आरम्भ, संरंभ और समारम्भ में, पंचेन्द्रियविषयों में, कषायों में प्रवृत्त होने से रोकना तथा आत्तध्यान और रौद्रध्यान से हटाकर धर्मध्यान और शुक्लध्यान में लगाना पापमय-सावद्य चिन्तनमनन से मन को रोकना मनोगुप्ति है। मनोगप्ति से. अशुभ कर्म आते हए रुकते हैं (संवर होता है), मन पर संयम और नियंत्रण करने से कर्मबन्ध रुकता है, आत्मा की निर्मलता बढ़ती है। (२) वचनगुप्ति-आरम्भ-समारम्भ आदि में प्रवृत्त करने वाले सावद्य वचनों का त्याग करके हित, मित, तथ्य, पथ्य, सत्य एवं निरवद्य (निर्दोष) वचन बोलना, प्रयोजन न होने पर मौन रखना वचनगुप्ति है। वचनगुप्ति का पालन करने से साधक अनायास ही अनेक दोषों से बच जाता है। (३) कायगुप्ति—काया को आरम्भ, संरम्भ और समारम्भ की प्रवत्ति से, सावद्य कार्यों से, पापकर्मों में प्रवृत्त होने से रोकना और समता भाव, तप, संयम, ज्ञानार्जन आदि संवर-निर्जराजनक कार्यों में प्रवृत्त करना कायगुप्ति है।' . इस प्रकार पाँच समितियाँ और तीन गुप्तियाँ मिलकर आठ प्रकार से मन-वचन-काया को लगाना तथा अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति करना, आत्मस्वरूप में रमण करना अष्टविध चारित्राचार है। । आचार्य महाराज इन आठों (अष्टप्रवचनमाता) का निर्दोषरूप से स्वयं पालन करते हैं और संघस्थित साधु-साध्वियों से पालन कराते हैं। तपाचार आत्मा आठ कर्मों से मलिन बनती है, उसे शुद्ध करने के लिए तप १ देखें-उत्तराध्यन सूत्र २४वाँ 'पवयणमाया' अध्ययन
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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