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________________ १५४ : जैन तत्त्वकलिका-द्वितीय कलिका आचार्य इस प्रभावनाचार से युक्त होते हैं । दर्शन सम्बन्धी इन आठ आचारों का आचार्यश्री स्वयं पालन करते हैं और दूसरों से पालन कराते हैं। इनके पालन से आचार्यश्री का सम्यग्दर्शन पुष्ट और समद्ध होता है। चारित्र आचार ____जो आत्मा को क्रोधादि चारों कषायों से अथवा नरकादि चारों गतियों से बचाकर मोक्षगति में पहुँचाता है, वह चारित्राचार कहलाता है । अथवा जो आठ कर्मों को चरे, भक्षण (क्षय) करे, ऐसा आचार-चारित्राचार है। चारित्र के दोषों से यत्नपूर्वक बचकर आत्मा को चारित्र के गुणों में स्थिर करना चारित्राचार का उद्देश्य है। चारित्र के आठ आचार "पाँच समितियों और तीन गुप्तियों में प्रणिधानयोग (मन-वचन-काया की एकाग्रता या उपयोग) से युक्त होना, यह अष्टविध चारित्राचार समझना चाहिए।' पांच समितियाँ (१) ईर्यासमिति-यतनापूर्वक गमनागमन करना ईर्यासमिति है। इसका पालन चार प्रकार से होता है। (१) आलम्बन (ईर्यासमिति युक्त . साधक के लिए रत्नत्रय ही अवलम्बन है); (२) काल (दिन को देखे बिना और रात्रि को लघुशंका-बड़ीशंका आदि के लिए पूजे बिना गमनागमन न करना; सूर्यास्त के बाद विहार न करना); (३) मार्ग (उन्मार्ग में अथवा दिन में विना देखे हुए मार्ग में गमनागमन करने से जीवों की विराधना होती है, ऐसा समझकर ऐसे मार्ग में गमनामगमन न करना ।) (४) यतना (चार प्रकार से-द्रव्य से-भूमि देखकर चलना, क्षेत्र से-गाड़ी की धूसरी-प्रमाण ३॥ हाथ भूमि देखकर चलना, काल से–दिन को देखकर और रात्रि को पूजकर गमनागमन करना और भाव से-मार्ग में गमन करते समय शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श के विषयों में प्रवृत्त न हो तथा वाचना, पच्छा, पर्यटना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा, इस पाँच प्रकार के स्वाध्याय में भी प्रवृत्त न हो)। १ पणिहायजोगजुत्तो पंच समिईहिं तिहिं गुत्तेहिं । . एस चरित्तायारो अट्ठविहो होइ नायव्वो ॥
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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