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गुरु स्वरूप : १५३
(४) अमूढ़दृष्टि-सभी देवों, गुरुओं, धर्मों (मत-पंथों) को एक-सा समझना देवमूढ़ता, गुरुमूढ़ता, धर्ममूढ़ता आदि है। इन मूढ़ताओं से रहित होकर सर्वज्ञ वीतराग द्वारा प्ररूपित दयामय/धर्म को, अठारह दोषरहित अरिहन्त देवों को तथा पंचमहाव्रती निग्रन्थ गुरु को ही क्रमशः धर्म, देव एवं गुरु समझना । अपना अहोभाग्य समझना कि मुझे उत्तम देव, गुरु और धर्म की प्राप्ति हुई है, इन तीनों तत्त्वों को युक्ति, अनुभूति और प्रतीतिपूर्वक जानना और मानना अमूढ़दृष्टि है। ... आचार्य इस दर्शनाचार से सम्पन्न होते हैं।
(५) उपबहण' - सम्यग्दृष्टिांऔर साधर्मी के सद्गुणों की शुद्ध मन से प्रशंसा करके उनके उत्साह और सद्गुणों में वृद्धि करना, उनकी सेवा शुश्रषा एवं धर्म-सहायता करके उनकी धर्मरुचि को प्रोत्साहन देना। - आचार्यश्री में उपबृहण दर्शनाचार कूट-कूटकर भरा होता है।
(६) स्थिरीकरण-किसी धार्मिक पुरुष का चित्त उपसर्ग आने से या अन्यतीर्थिकों के संसर्ग के कारण धर्म से विचलित हो रहा हो तो उसे स्वयं उपदेश एवं प्रेरणा देकर या किसी प्रकार से धर्मपालन में सहयोग देकर, अथवा किसी सद्गृहस्थ से उसे सहायता दिलवाकर पुनः धर्म में उसका चित्त या परिणाम स्थिर करना, धर्म में दृढ़ करना स्थिरीकरण नामक दर्शनाचार है।
_आचार्यश्री तो इस स्थिरीकरण दर्शनाचार से पद-पद पर अभ्यस्त होते हैं।
(७) वात्सल्य-जैसे गाय बछड़े पर प्रोति रखती है, उसी प्रकार स्वधर्मी जनों पर प्रीति रखना, रोगी, वृद्ध, तपस्वी, ज्ञानी एवं स्थविरों की आहार-पानी, वस्त्र-पात्र, स्थान आदि से सेवा करना, स्वधर्मी संघ को सुखशान्ति पहुँचाना, संघ पर आपत्ति एवं उपसगे आए तो स्वयं कष्ट सहकर भी उसका निवारण करना वात्सल्य आचार है। - आचार्यश्री वात्सल्य दर्शनाचार से सम्पन्न होते हैं।
(८) प्रभावना-आत्मा को सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय से प्रभावशील बनाना आन्तरिक प्रभावना है, दुष्कर क्रिया, व्रताचरण, अभिग्रह, कवित्वशक्ति, पाण्डित्य, वादशक्ति, प्रवचनशक्ति आदि द्वारा धर्म को दिपाना, बाह्य प्रभावना है।
१ कहीं इसके बदले 'उपगृहन' शब्द भी है। जिसका अर्थ है-साधार्मिकों की गुह्य
. बातों को धर्यपूर्वक गुप्त रखना, उसका प्रचार-प्रसार न करना। --सं०